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Writer's pictureAnshul P

RV 1.25.17


The purpose of Yagya is sacrifice, not consumption. We should always remember that the food we consume should be healthy and pure, Since it is good for our well being @ Rig Ved 1.25.17


सं नु वो॑चावहै॒ पुन॒र्यतो॑ मे॒ मध्वाभृ॑तं ।

होते॑व॒ क्षद॑से प्रि॒यं ॥


Translation


नु - Sure.


सं वो॑चावहै॒ - Will talk later.


पुनः - Again.


यतः - For that reason.


मे॒ - For myself.


मधु - Sweet.


आभृ॑तम् - To complete.


होते॑व॒ - Like the one who is conducthing Yagya.


क्षद॑से - While eating.


प्रि॒यम् - Dear


Explanation:-This mantra says that whatever food is available on this earth, it should first be offered in the Yagya.Whatever remains after the Yagya should then be consumed.Since this food has been offered to the Deities it becomes sacred.This sort of food is pure and refined.


Deep meaning:- The purpose of Yagya is sacrifice, not consumption. We should always remember that the food we consume should be healthy and pure, Since it is good for our well being.



#मराठी


ऋग्वेद १.२५.१७


सं नु वो॑चावहै॒ पुन॒र्यतो॑ मे॒ मध्वाभृ॑तं ।

होते॑व॒ क्षद॑से प्रि॒यं ॥


भाषांतर


नु - अवश्य.


सं वो॑चावहै॒ - मिॆळून वार्ता करू.


पुनः - पुनः.

यतः - ज्या कारणे.


मे॒ - माझ्या साठी.


मधु - मधुर.


आभृ॑तम् - संपादित करणे.


होते॑व॒ - होता सारख्या.


क्षद॑से - खाताही.


प्रि॒यम् - प्रिय.


भावार्थ :- ह्या मंत्रात म्हटलेले आहे की जे काही पदार्थ ह्या सृष्टीत उपलब्ध आहेत त्याचा उपयोग यज्ञ कार्यात करायला पाहिजे आणि नंतर उरलेल्या पदार्थाना ग्रहण केले पाहिजे. हे अन्न देवांना समर्पित केलेले असल्यामुळे ते पवित्र असत.असे अन्न ग्रहण केल्याने बुद्धी निर्मळ होते.


गूढार्थ: यज्ञाचे उद्दिष्ट आहे त्याग,उपभोग नव्हे. आहारात पौष्टिकता आणि शुद्धतएच् काळजी घेतली पाहिजे,कारण की असा आहार स्वास्थ्यवर्धक असताे.



#हिंदी


ऋग्वेद १.२५.१७


सं नु वो॑चावहै॒ पुन॒र्यतो॑ मे॒ मध्वाभृ॑तं ।

होते॑व॒ क्षद॑से प्रि॒यं ॥


अनुवाद


नु - अवश्य ही।


सं वो॑चावहै॒ - मिलकर वार्ता करते हैं।


पुनः - फिर से।


यतः - जिस कारण से।


मे॒ - मेरे लिए।


मधु - मधुर।


आभृ॑तम् - संपादित करना।


होते॑व॒ - होता की तरह।


क्षद॑से - खाते ही।


प्रि॒यम् - प्रिय को।


भावार्थ :-इस मंत्र में कहा गया है कि जो भी खाद्य पदार्थ इस सृष्टि में उपलब्ध है उसका उपयोग यज्ञ कार्य के लिए करें और यज्ञ के बाद जो कुछ शेष बचता है वह ग्रहण करें। यह अन्न देवों को समर्पित होने के कारण पवित्र होता है।इसके खाने से बुद्धि निर्मल होती है।


गूढार्थ: यज्ञ का उद्देश्य होता है त्याग,उपभोग नहीं।भोग बुद्धि से करना चाहिए। आहार में पौष्टिकता और शुद्धता का ध्यान करना चाहिए। क्योंकि ऐसा आहार ही स्वास्थ वर्द्धक होता है।


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