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Writer's pictureAnshul P

RV 1.27.1

Updated: Jul 20, 2020


Here Horse is the symbol of Power. For the sake of our security we choose the powerful one.No one is as powerful as Agnidev. He is the symbol of Power.He destroys our vices. The flicking of mane by the horse and Agnidev destroying our enemy like vices are all the processes of purification. Agnidev purifies us by destroying the VICES like Lust, Anger, Greed, etc to cleanse our consciousness and we become clean and unaffected. This is made possible by Agnidev @ Rig Ved 1.27.1


अश्वं॒ न त्वा॒ वार॑वंतं वं॒दध्या॑ अ॒ग्निं नमो॑भिः ।

स॒म्राजं॑तमध्व॒राणां॑ ॥


Translation:-


अश्वं॒ न - Like an horse.


वार॑वंतम् - With mane or hair.


वं॒दध्ये - To pay obeisance.


त्वा अ॒ग्निम् - For Agni's


नमो॑भिः - By hymns.


स॒म्राजं॑तम् - Like an Emperor.


अध्व॒राणाम् - Of Yagya.


Explanation:-In this mantra the Yajmans say that through our hymn recitals we pay Obeisance to Agnidev who is the Emperor of Yagya's. Here similarities are shown between Agni and horses to explain the fact that just as horses use their mane or hair to make the flies and insects fly away,similarly Agni destroys our enemies through his flames. In the same way just as the horses with mane look beautiful so also Agni in the form of horse looks beautiful.We bow before such Agnidev.


Deep meaning: Here Horse is the symbol of Power. For the sake of our security we choose the powerful one.No one is as powerful as Agnidev. He is the symbol of Power.He destroys our vices. The flicking of mane by the horse and Agnidev destroying our enemy like vices are all the processes of purification. Agnidev purifies us by destroying the VICES like Lust, Anger, Greed, etc to cleanse our consciousness and we become clean and unaffected. This is made possible by Agnidev.



#मराठी


ऋग्वेद १.२७.१


अश्वं॒ न त्वा॒ वार॑वंतं वं॒दध्या॑ अ॒ग्निं नमो॑भिः ।

स॒म्राजं॑तमध्व॒राणां॑ ॥


भाषांतर :-


अश्वं॒ न - अश्वां सारखे.


वार॑वंतम् - केशयुक्त.


वं॒दध्ये - वंदन करण्या हेतु.


त्वा अ॒ग्निम् - आपण अग्निचे.


नमो॑भिः - स्तुतीं द्वारे.


स॒म्राजं॑तम् - सम्राट स्वरूप.


अध्व॒राणाम् - यज्ञाचा.



भावार्थ :-ह्या मंत्रात यजमान म्हणता आहेत की आम्ही आपल्या स्तुतींच्या माध्यमातून यज्ञाचे सम्राट अग्निचे वंदन करतो.इथे अग्निला अश्वांची उपमा देण्या मागे हा अभिप्राय होउ शकतो की ज्या प्रकारे केशयुक्त अश्व आपल्या केशाना हलवून कीटक पतंगाना पळवून लावतो,त्याच प्रकारे अग्नि पण आपली ज्वाळा पसरवून यजमानांचे शत्रुंचा विनाश करते.ज्या प्रकारे अश्व आपले मानेने किंवा केशाने सुंदर दिसतो,त्या प्रकारे अग्नि रूपी अश्व ही सुंदर दिसतो.ह्या यज्ञकर्मात सम्राट रूपी अग्निला आम्ही वंदन करतो.


गूढार्थ: इथे अश्व शक्तीचे प्रतीक आहे.आम्ही आपल्या रक्षणासाठी शक्तीने भरपूर व्यक्तिमत्व शोधतो.अग्निदेवहून सामर्थ्यवान अन्य कोणतेही व्यक्तिमत्व नाही.ते शक्तीचे प्रतीक आहेत.ते आमचे विकाराना नष्ट करतात.अश्वाचे केश झटकने आणि अग्निदेवांनी आमचे शत्रू रूपी विकार नष्ट करने, हे शुद्धतेची प्रक्रिया आहे.काम क्रोध, लोभ,मत्सर व इतर आमचे विकार आहेत. आमचे लक्ष्य आहे निर्विकार होउन आपले स्वरूप उज्जवल करणे.हे अग्निचे माध्यमे संभव होतो.



#हिंदी


ऋग्वेद १.२७.१


अश्वं॒ न त्वा॒ वार॑वंतं वं॒दध्या॑ अ॒ग्निं नमो॑भिः ।

स॒म्राजं॑तमध्व॒राणां॑ ॥


अनुवाद :-


अश्वं॒ न - घोडे की भांति।


वार॑वंतम् - बालोंवाले या अयाल वाले।


वं॒दध्ये - वंदना करने हेतु।


त्वा अ॒ग्निम् - आप अग्नि की।


नमो॑भिः - स्तुतियों के द्वारा।


स॒म्राजं॑तम् - सम्राट स्वरूप।


अध्व॒राणाम् - यज्ञों के।


भावार्थ :-इस मंत्र में यजमान कह रहें हैं कि हम अपनी स्तुतियों के माध्यम से यज्ञों के सम्राट स्वरूप अग्नि का वंदन करते हैं।यहां अग्नि को घोडे की उपमा देने के पीछे यह अभिप्राय हो सकता है कि जिस प्रकार बालों वाला घोडा अपने केशों द्वारा कीट पतंगादि किटाणुओं को दूर भगाता है उसी प्रकार यह अग्नि भी अपनी ज्वालाओं के द्वारा यजमानो के शत्रुओं को नष्ट करती है। जिस प्रकार यह अयाल वाला अश्व सुंदर दिखता है उसी प्रकार यह अग्नि रूपी घोडा भी सुंदर दिखता है। इस यज्ञकर्म में सम्राट रूपी अग्नि का हम वंदन करते हैं।


गूढार्थ:यहां घोडा शक्ति का प्रतीक है। हम अपनी रक्षा हेतु शक्तिशाली की कामना करते हैं। अग्निदेव से अधिक शक्तिशाली और कोई नहीं,वे शक्ति के प्रतीक हैं। वे हमारे विकारों को नष्ट करते हैं।घोडे का बाल झटकना और अग्निदेव द्वारा शत्रु रूपी विकारों को नष्ट करना शोधन प्रक्रिया ही है।काम, क्रोध, लोभ मत्सर आदि हमारे विकार हैं। हमारा लक्ष्य है निर्विकार होकर अपने स्वरूप को उज्जवल करना। यह शोधन अग्नि के द्वारा संभव है।





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