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Writer's pictureAnshul P

RV 1.27.12

Updated: Jul 31, 2020


RELATIONSHIP BETWEEN BHAKT AND BHAGWAN


Rigved 1.27.12



स रे॒वाँ इ॑व वि॒श्पति॒र्दैव्यः॑ के॒तुः शृ॑णोतु नः ।

उ॒क्थैर॒ग्निर्बृ॒हद्भा॑नुः ॥


Translation:


सः - They.


विश्पति - The one who looks after the well being of his subjects.


दैव्यः - Priest of Deities.


केतुः - Messenger of Deities.


बृहद्भानुः - The one with matured rays.


अग्नि - Agni.


रेवान इव - Like the rich.


उक्थैै - Through hymns.


नः - Ours.


श्रृणोतु - Listen.


Translation:This mantra describes the qualities of Agni.It says that he looks after the well being of his subjects, is the messenger of Parmatma, priest of Deities and the carrier of matured rays.He is requested to listen to the prayers of Yajmans through hymns just like a rich King listens to pleas of his prisoners in the form of hymn.


Deep meaning: There is an special relation(sambandh) between Parmatma and Devotee. This means that they are very close to each other, they are integrated in each other They acquire the entity of each other, They become absolute love which actually means Parmatma. In this state they understand each others feelings, Just like a telephone which is a medium of communication. Here the medium is Devotion and Worship. After this meeting of Atma and Parmatma we feel satisfied and become Fearless.



#मराठी


ऋग्वेद १.२७.१२



स रे॒वाँ इ॑व वि॒श्पति॒र्दैव्यः॑ के॒तुः शृ॑णोतु नः ।

उ॒क्थैर॒ग्निर्बृ॒हद्भा॑नुः ॥


भाषांतर :


सः - ते.


विश्पति - प्रजापालक.


दैव्यः - देवांचे होता.


केतुः - देवांचे दूत.


बृहद्भानुः - प्रौढ किरणांने युक्त.


अग्नि - अग्नि.


रेवान इव - धनवानां सारखे.


उक्थैै - स्तुतिंचे माध्यमातून.


नः - आमची.


श्रृणोतु - ऐकावे.


भावार्थ: ह्या मंत्रात अग्निच्या वैशिष्ट्यांचे वर्णन करून म्हटलं आहे की अग्निदेव प्रजापालक, देवदूत, देवतांचे होता आणि पूर्ण विकसित किरणांनी युक्त आहेत. त्यांनी यजमानांची स्तोत्र ह्या प्रकारे ऐकली पाहिजे ज्या पद्धती ने धनवान राजा आपल्या बंदिवानांची प्रार्थना त्यांनी गायिलेल्या स्तुतिंच्या माध्यमे ऐकतो.


गूढार्थ: भक्त आणि परमेश्वराचा एकरूपतेचा संबंध आहे.संबंध म्हणजे एकरूप होउन जाणे, एकमेकात समाहित होउन जाणे.भक्त भगवानमय आणि भगवान भक्तमय होतात.ते प्रेममय होतात,प्रेम म्हणजे परमात्माच. ह्या अवस्थेत ते दोघे एकमेकांच्या भावना ओळखतात.जसे दूरध्वनी एकमेकाना जोडण्याचा माध्यम आहे,इथे जोडनं एक क्रिया अाहे ते आहे भक्ति आणि उपासना.ह्याची एकरूपता ही नेहमी आम्हाला समाधान आणि अभय देते.


ऋग्वेद १.२७.१२



स रे॒वाँ इ॑व वि॒श्पति॒र्दैव्यः॑ के॒तुः शृ॑णोतु नः ।

उ॒क्थैर॒ग्निर्बृ॒हद्भा॑नुः ॥


अनुवाद :


सः - वह।


विश्पति - प्रजा पालक।


दैव्यः - देवों के होता।


केतुः - देवों के दूत।


बृहद्भानुः - प्रौढ़ रश्मियों वाले।


अग्नि - अग्निदेव।


रेवान इव - धनवानों की तरह।


उक्थैै - स्तुतियों के माध्यम से।


नः - हमारी।


श्रृणोतु - सुने।


भावार्थ : इस मंत्र में अग्नि की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा गया है कि प्रजापालक,देवदूत, देवों के होता और प्रौढ़ रश्मियों वाले अग्निदेव यजमानों की प्रार्थना स्तोत्रो के माध्यम से सुने उसी तरह जिस प्रकार धनवान राजालोग अपने बन्दीजनो की प्रार्थना उनके गाये स्तुतियों के माध्यम से सुनते थे।


गूढार्थ: भक्त और भगवान का आत्मीय संबंध होता है। संबंध का अर्थ है एक दूसरे से बंध जाना,एक दूसरे में समाहित हो जाना,क्योंकि चित्त तो भगवान से जुड जाता है। भक्त भगवानमय और भगवान भक्तमय हो जाते हैं। वे प्रेममय हो जाते हैं, प्रेम को परमात्मा कहा गया है।इस अवस्था में एक दूसरे के भाव को समझते हैं। जैसे दूरभाष जुडने का माध्यम है,यहां जोडने की क्रिया होती है भक्ति और उपासना ।जुडने पर हमें संतुष्टि और अभय ये दोनो प्राप्त होते हैं।




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