HOW TO CONTROL YOUR इन्द्रिय(SENSES).
Rigved 1.28.1
Here there is a mention of Indra Puja.Indra is the Deity of hand which symbolizes Karma or work.He is also the Deity of our senses. To stop these senses or indriyas from becoming fierce it is necessary to feed them Somras or Shaantras.In other words we can say that in order to keep senses well behaved we have to follow the path of Satvikta or Righteousness @ RV 1.28.1
यत्र॒ ग्रावा॑ पृ॒थुबु॑ध्न ऊ॒र्ध्वो भव॑ति॒ सोत॑वे ।
उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्विं॑द् जल्गुलः॥
Translation:-
इन्द्र - Oh Indra!
यत्र - This work.
सोतवे - To put the drops of Somras in it.
पृथुबुध्नः - With thick roots.
ग्रावा - Stone.
ऊर्ध्व - Upper side.
भवति - To be.
उलखलसुतानाम् - squeezed into grinding stones.
अव इथे उ - Near.
जल्गुलः - To drink.
Explanation:- This mantra is addressed to Indradev. Here he is requested to come for Anjanasva karma and drink Somras where it falls on the two grinding stones in such a way that it appears to drop on two wide and straight thighs.
Deep meaning:- Here there is a mention of Indra Puja.Indra is the Deity of hand which symbolizes Karma or work.He is also the Deity of our senses. To stop these senses or indriyas from becoming fierce it is necessary to feed them Somras or Shaantras.In other words we can say that in order to keep senses well behaved we have to follow the path of Satvikta or Righteousness.
#मराठी
ऋग्वेद १.२८.८
यत्र॒ ग्रावा॑ पृ॒थुबु॑ध्न ऊ॒र्ध्वो भव॑ति॒ सोत॑वे ।
उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्विं॑द् जनल्गुलः॥
भाषांतर :
इन्द्र - हे इन्द्र!
यत्र - ज्या कर्मात.
सोतवे - सोमरसाचे थेंब टाकण्यासाठी.
पृथुबुध्नः - स्थूळ मूळचा.
ग्रावा - दगड.
ऊर्ध्व - वर किंवा उन्नत.
भवति - होणे.
उलखलसुतानाम् - उखळीत पिळून ठेवलेले.
अव इथे उ - समोर जाउन.
जल्गुलः - प्राशन करणे.
भावार्थ :ह्या मंत्रात इन्द्राला संबोधून म्हटलेले आहे की त्याने अंञ्जःस्व नावाचे कर्मात उपस्थित राहून सोमरसाचे पान करावे. जात्याच्या दगडासारख्या दोन विशाल व घट्ट मांड्यावर त्या सोमरसाचे थेंब पडावे.
गूढार्थ: इथे इन्द्र पूजेची महती सांगितली आहे.इन्द्र हातांचे देव आहेत जे कर्माचे प्रतीक आहेत.तेआमचे मानसांचे इंद्रियांचे पण देव आहेत .इन्द्रियांची उग्रता थांबवण्यासाठी इथे त्यांना सोमरस किंवा शांतरस प्राशन करण्यास सांगितले आहे.अर्थात इन्द्रियांना सदाचारी बनविण्यासाठी आम्हाला सात्विकता धारण केली पाहिजे.
#हिन्दी
ऋग्वेद १.२८.१
यत्र॒ ग्रावा॑ पृ॒थुबु॑ध्न ऊ॒र्ध्वो भव॑ति॒ सोत॑वे ।
उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्विं॑द् जल्गुलः॥
अनुवाद :
इन्द्र - हे इन्द्र!
यत्र - जिस कर्म में।
सोतवे - सोमरस बूँदों में डालने के लिए ।
पृथुबुध्नः - स्थूल मूल वाला।
ग्रावा - पत्थर।
ऊर्ध्व - ऊपर या उन्नत।
भवति - होना।
उलखलसुतानाम् - ओखल से निचोडे गए।
अव इथे उ - पास जाकर।
जल्गुलः - पान करना।
भावार्थ:
:इस मंत्र में इन्द्र को संबोधित करते हुए कहा गया है कि वे अंञ्जःसव नामक कर्म में उपस्थित होकर सोमरस का पान करें जहां सोमरस की बूँदे गिरने के लिए दोनो पत्थर अर्थात सिल और बट्टा जाँघों के समान विशाल और उन्नत रखें होते हैं।
गूढार्थ: यहां पर इन्द्र की पूजा की बात कही गई है।इन्द्र हाथों के देव हैं अर्थात कर्म के प्रतीक हैं। वे इन्द्रियों के भी देव हैं। इन्द्रियां उग्र न हों इसलिए उन्हें सोमरस या चंद्रमा या शांत रस देने की बात कही जा रही है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इन्द्रियां सदाचारी बनी रहें इसलिए हमें सात्विकता को धारण करना चाहिए।
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