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Writer's pictureAnshul P

RV 1.28.6

Updated: Aug 7, 2020


Shruti Bhagwati says that in order to attain purity everything has to undergo a process, Be it rice or gold or scientific investigations or Somras or the Moksha path for us @ Rig ved 1.28.6


वि॒भ॒क्तासि॑ चित्रभानो॒ सिंधो॑रू॒र्मा उ॑पा॒क आ ।

स॒द्यो दा॒शुषे॑ क्षरसि ॥


Translation:


वनस्पते - Oh the grinding stones!


उत ते - Yours.


अग्रमित् - Just forward.


वातः - Wind.


वि वीकि स्म् - Specially flowing.


उलूखल - Oh the grinding Stones!


अथो - After this.


इन्द्राय - Of Indra.


पातवे - To drinking.


सोमं सुनु - Somras flowing down in drops.


Explanation:The meaning of this mantra is that in order to make rice out of paddy first the paddy is kept in the grinding stones and beaten in order to separate the husk.Then it is taken in a supa(made of cane) and kept in such an angle that as the wind blows the husk flies away and only rice stays back. Then it is ready to be used in Yagya.Similar process is also done for Somras.


Deep meaning:- Shruti Bhagwati says that in order to attain purity everything has to undergo a process, Be it rice or gold or scientific investigations or Somras or the Moksha path for us.



# मराठी


ऋग्वेद १.२८.६


वि॒भ॒क्तासि॑ चित्रभानो॒ सिंधो॑रू॒र्मा उ॑पा॒क आ ।

स॒द्यो दा॒शुषे॑ क्षरसि ॥


भाषांतर:-


वनस्पते - हे उखळरूपी वनस्पते!


उत ते - तुमचे.


अग्रमित् - पुढे ही.


वातः - वायु.


वि वीकि स्म् - विशेष रूपात वाहणारा.


उलूखल - हे उखळी!


अथो - ह्याचे नंतर.


इन्द्राय - इन्द्राचा.


पातवे - प्राशन साठी.


सोमं सुनु - सोमाभिषव.


भावार्थ :मंत्राचा आशय आहे की भाताला उखळीत ठेवून मूसळाने त्याला प्रहार करून त्याची साल काढल्यावर नंतर सुपात घेउन पाखडतात. हवे मुळे त्याची टरफलं उडून होतात.हा स्वच्छ केलेला भात यज्ञकर्मात उपयोग केला जातो.अशीच प्रक्रिया सोमरस तयार करण्यात केली जाते.


गूढार्थ: श्रुति भगवती म्हणतात की प्रत्येक वस्तूला शुद्ध होण्यासाठी मोठे परीक्षणातून जावा लागतो.मग ते भात असो की स्वर्ण असो की वैज्ञानिक अविष्कार असो किंवा मनुष्यासाठी मोक्षमार्ग असो.


#हिन्दी


ऋग्वेद १.२८.६


वि॒भ॒क्तासि॑ चित्रभानो॒ सिंधो॑रू॒र्मा उ॑पा॒क आ ।

स॒द्यो दा॒शुषे॑ क्षरसि ॥


अनुवाद :


वनस्पते - हे ओखल रूपी वनस्पते!


उत ते - तुम्हारे।


अग्रमित् - आगे ही।


वातः - वायु।


वि वीकि स्म् - विशेष रूप से प्रवाहित होना।


उलूखल - हे ओखल!


अथो - इसके बाद।


इन्द्राय - इन्द्र के।


पातवे - पान के लिए।


सोमं सुनु - सोमाभिषव।


भावार्थ : मंत्र का आशय यह है कि धान को आेखल में रखकर उसे मूसल से कूटकर फिर उसे फटक कर साफ किया जाता है।जब उसके आगे हवा चलती है तो भूसा उड जाता है और साफ किया हुआ चावल यज्ञकर्म मे प्रयोग किया जाता है। ठीक इसी तरह सोमरस को भी शुद्व किया जाता है।


गूढार्थ: श्रुति भगवती कहती हैं कि प्रत्येक वस्तु को शुद्व होने के लिए कर्ई प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। चाहे वह धान हो,या स्वर्ण हो या सोमरस हो या वैज्ञानिक अाविष्कार हो, चाहे मनुष्य का मोक्ष मार्ग हो।




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