Here Indra stands for Indriya or senses.Shruti Bhagwati says that the one who has total control over his senses is Wealthy and strong @ RV 1.29.1
Rig Ved 1.29.1
याच्चि॒द्धि स॑त्य सोमपा अनाश॒स्ता इ॑व॒ स्मसि॑ ।
आ तू न॑ इंद्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥
Translation :
सोमपाः - Oh the one who drinks Somras.
सत्य - One who speaks the Truth.
यत् चित् हि - Although.
अनाशस्ता इव - Like one with no fame.
स्मसि -Happening.
तु - Since.
तुवीमध - Oh the rich one!
इन्द्र - Of Indra.
नः - Us.
सहस्त्रेषु - Thousands.
शुभ्रिषु - Beautiful.
गोषु - Cows.
अश्वेषु - On horses.
आ शंस्य - To endow fame.
Explanation :This mantra sings praises of Indradev. It says that he is the one who drinks Somras,always seeks the truth and is the owner of many types of Wealth. Here he is requested to pardon all the shortcomings of his devotees and provide them wealth consisting thousands of Cows and horses so that even the devotees acquire fame in the society.
Deep meaning:-Here Indra stands for Indriya or senses.Shruti Bhagwati says that the one who has total control over his senses is Wealthy and strong.
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# मराठी
ऋग्वेद १.२९.१
याच्चि॒द्धि स॑त्य सोमपा अनाश॒स्ता इ॑व॒ स्मसि॑ ।
आ तू न॑ इंद्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥
भाषांतर :
सोमपाः - हे सोमपान करणारे!
सत्य - सत्य वचन बोलणारे.
यत् चित् हि - यद्यपि.
अनाशस्ता इव - अप्रशस्त सारखे.
स्मसि - होत आहे.
तु - तथापि.
तुवीमध - हे बहुधन!
इन्द्र - स्वतः इन्द्र.
नः - आमचे.
सहस्त्रेषु - हजार.
शुभ्रिषु - सुंदर.
गोषु - गाई.
अश्वेषु - अश्व.
आ शंस्य - प्रशस्त करणे.
भावार्थ:ह्या मंत्रात इन्द्राची प्रशंसा केली आहे.म्हटले आहे की ते सोमपान करणारे, सत्य वचन बोलणारे आणि अनेक प्रकारांचे धनांचे स्वामी आहेत.त्यांना यजमान प्रार्थना करतात की त्यांने भक्तांच्या अवगुणांवर लक्ष न देता,यजमानांना हजारो गाई आणि अश्वाच्या रूपात धन प्रदान करावे ज्यामुळे समाजात य़जमानांना प्रसिध्दी प्राप्त होइल .
गूढार्थ: इथे इन्द्राचा तात्पर्य इन्द्रियांशी आहे.इथे श्रुति भगवती म्हणतात की सर्वात धनवान आणि प्रबळ तोच आहे जे आपली इन्द्रियांवर नियंत्रण ठेवू शकतो.
# हिन्दी
ऋग्वेद १.२९.१
याच्चि॒द्धि स॑त्य सोमपा अनाश॒स्ता इ॑व॒ स्मसि॑ ।
आ तू न॑ इंद्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥
अनुवाद:
सोमपाः - हे सोमपान करनेवाले!
सत्य - सत्य वचन कहनेवाले।
यत् चित् हि - यद्यपि।
अनाशस्ता इव - अप्रशस्तों की तरह।
स्मसि - हो रहे हैं।
तु - तथापि।
तुवीमध - हे बहुधन!
इन्द्र - स्वयं इन्द्र।
नः - हमें।
सहस्त्रेषु - हजारो।
शुभ्रिषु - सुंदर।
गोषु - गाय।
अश्वेषु - घोडे में।
आ शंस्य - प्रशस्त करना।
भावार्थ:इस मंत्र में इन्द्र की प्रशस्ति की गई है। कहा गया है कि वे सोमपान करने वाले,सदा सत्य वचन बोलनेवाले और अनेक प्रकार के धन के स्वामी हैं। उनसे प्रार्थना की गई है कि वे अपने भक्तों के अवगुणों पर ध्यान न देकर उसे हजारों गाय और अश्व रूपी धन प्रदान करें समाज में वह प्रशस्त बनकर रह सके।
गूढार्थ:
यहाँ इंद्र का तात्पर्य इंद्रियों से है, श्रुति भगवती कह रही हैं कि सबसे धनवान और प्रबल वही है जो अपनी इंद्रियों पर काबू रखता है।
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