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RV 1.29.7

Updated: Aug 17, 2020


DESTROY YOUR ANGER


Rig Ved 1.29.7


Here it says that it is necessary to destroy the enemy in the form of anger. Bhagwat Gita(2.62/63) says that whenever the desire for a wish is born it makes us feel dissatisfied because it is the nature of desire to be dissatisfied. This gives birth to anger.Anger paves the way for temptation or fascination. Due to this we forget our usual knowledge of behaviour since we have left our wisdom behind. Unwanted things start occurring, the society becomes our enemy. From here begins our decline. Therefore it is necessary to destroy or kill our anger. Uncontrolled anger gives rise to unwanted arguments, fights and self destruction.This gives rise to high blood pressure,brain strokes,heart attacks and depression @ Rig ved 1.29.7


सर्वं॑ परिक्रो॒शं ज॑हि जं॒भया॑ कृकदा॒श्वं॑ ।

आ तू न॑ इंद्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥


Translation :


सर्वम् -


परिक्रोशम् - surounded by angry men on all four sides.


जहि - To kill.


कृकदाश्वम् - Violent animal.


जम्भय - To kill.


तु - Then too.


तुवीमघ - Oh the rich one!


इन्द्र - Indra!


नः - Us.


सहस्त्रेषु - Thousands.


शुभ्रिषु - Beautiful.


गोषु - Cows.


अश्वेषु - Horses.


आ शंस्य - To provide fame.


Explanation: In this mantra Indra is requested to eliminate all the angry enemies, violent people and groups. And give us self determination and power to enrich our lives. Give us unlimited Cows and horses to make our lives more praise worthy.


Deep meaning: Here it says that it is necessary to destroy the enemy in the form of anger. Bhagwat Gita(2.62/63) says that whenever the desire for a wish is born it makes us feel dissatisfied because it is the nature of desire to be dissatisfied. This gives birth to anger.Anger paves the way for temptation or fascination. Due to this we forget our usual knowledge of behaviour since we have left our wisdom behind. Unwanted things start occurring, the society becomes our enemy. From here begins our decline. Therefore it is necessary to destroy or kill our anger. Uncontrolled anger gives rise to unwanted arguments, fights and self destruction.This gives rise to high blood pressure,brain strokes,heart attacks and depression.




#मराठी


ऋग्वेद १.२९.७


सर्वं॑ परिक्रो॒शं ज॑हि जं॒भया॑ कृकदा॒श्वं॑ ।

आ तू न॑ इंद्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥


अनुवाद:


सर्वम् - सर्व.


परिक्रोशम् - चारही बाजूस क्रोध करणारे पुरूष.


जहि - वध करणे.


कृकदाश्वम् - हिंसक शत्रू.


जम्भय - वध करणे.


तु - तरी पण.


तुवीमघ - हे धनी इन्द्र!


इन्द्र - इन्द्र!


नः - आम्ही.


सहस्त्रेषु - हजारो.


शुभ्रिषु - सुंदर.


गोषु - गाई.


अश्वेषु - अश्व.


आ शंस्य - प्रसिद्ध करणे.


भावार्थ:ह्या मंत्रात इन्द्रांना प्रार्थना केली आहे की त्यांने सर्व क्रोध करणारे शत्रूंना, हिंसक लोकांना, समूहांना समाप्त करावे.आम्हास आत्मशक्ती देउन आमचे जीवन समृद्ध करा.आम्हाला असंख्य गाई आणि अश्व देउन आमचे जीवन प्रशंसनीय करावे.


गूढार्थ: इथे क्रोधरूपी शत्रूचे विनाश करण्यासाठी म्हटलेले आहे.भगवतगीता(२.६२/६३) मधे सांगितलेले आहे की फळाची आशातून कामना प्रकट होते ज्याचा स्वभाव आहे असंतुष्ट राहणे.असंतोषातून क्रोध उत्पन्न होतो.क्रोधहून मोह उत्पन्न होतो.मोहा ने व्यक्ती आचार व्यवहाराचे ज्ञान विसरून जातो.ज्ञान नसल्यावर बुद्धी पण लुप्त होते आणि अनुचित प्रकाराचे कार्य होउ लागतात.समाज अश्या व्यक्तीचा शत्रू बनून जातो.मनुष्याचा पतन होउ लागतो.म्हणून ह्याचे विनाश किंवा वध आवश्यक आहे.अनियंत्रित क्रोधाने अनावश्यक विवाद, मारहाण आणि स्वतःचे नुकसान संभव आहे. ह्याचा मुळे उच्चरक्तचाप,मष्तिष्कास इजा, हृदयाघात आणि विषाद उत्पन्न होतात.



#हिन्दी

ऋग्वेद १.२९.७


सर्वं॑ परिक्रो॒शं ज॑हि जं॒भया॑ कृकदा॒श्वं॑ ।

आ तू न॑ इंद्र शंसय॒ गोष्व श्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥


अनुवाद:


सर्वम् - सभी।


परिक्रोशम् - चारों ओर से क्रोध करनेवाले पुरूष।


जहि - वध करना।


कृकदाश्वम् - हिंसक शत्रु।


जम्भय - वध करना।


तु - तो भी।


तुवीमघ - हे धनवान इन्द्र!


इन्द्र - इन्द्र!


नः - हमें।


सहस्त्रेषु - हजारों।


शुभ्रिषु - सुंदर।


गोषु - गाय।


अश्वेषु - अश्व।


आ शंस्य - प्रसिद्ध करना ।


भावार्थ:इस मंत्र में इन्द्र से निवेदन किया जा रहा है कि वे सब क्रोधी शत्रुओं को,हिंसक लोगों को,समूहों तो समाप्त करें। तथा हमें आत्म शक्ति देकर हमारे जीवन को दीप्तिमान बनाएं।हमें असंख्य गाय और अश्व देकर हमारा जीवन प्रशंसनीय बनाएं।


गूढार्थ:

क्रोध रूपी शत्रु का विनाश करने के लिए कहा जा रहा है।भगवत गीता (2.62/63) कहती है कि फल की आशा से कामना प्रकट होती है जिसका स्वभाव ही है असंतुष्ट रहना।असंतोष से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मोह जन्मता है। व्यक्ति मोह के कारण आचार व्यवहार का ज्ञान भूल जाते हैं।ज्ञान जाने से बुद्धि चली जाती है। अनुचित प्रकार के कार्य होने लगते हैं ,समाज ऐसे व्यक्ति का शत्रु बन जाता है।मनुष्य का पतन हो जाता है। इसलिए इसका वध या विनाश आवश्यक है। अनियंत्रित क्रोध से अनावश्यक विवाद, मारपीट, स्वतः को नुकसान पहुँचाना भी संभव है।इससे उच्चरक्तचाप, मष्तिष्क फट जाना,हृदयाघात और विषाद पैदा होते हैं।



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