PERFORM YOUR KARMA WITH INTENTION OF PARMARTHA
Rig Ved 1.30.15
Here Kriya (deed/क्रिया) in Akriya (non deed/अक्रिय) and Akriya in Kriya in actual should be with Parmarth(परमार्थ) thoughts which is only possible when we have no desire for the deeds performed. There should be no attachment towards its outcome,nor there should be deed related self ego or attachment. Because when the deed is not for your benefit and comfort but for others then you become selfless(Akriya) .
आ यद्दुवः॑ शतक्रत॒वा कामं॑ जरितॄ॒णां ।
ऋ॒णोरक्षं॒ न शची॑भिः ॥
Translation :
शतक्रतो - Oh Indra!
यत् - Those.
दुवः - Wealth.
आ - To the deserving one's.
तम् - Them.
जरितृणाम् - The one's singing your praises.
कामम् - To favour or indulge.
शचीभिः - Deed same as that of Chariot.
अक्षम् - Of hub.
न - similar.
आ ऋणोः - To bring and keep.
Explanation: Here Indradev is requested that whatever wealth the hymn singing Yajmans deserve, You favour or indulge them the same way the chariots hub does its work.
Deep meaning: Here Kriya (deed) in Akriya(non deed) and Akriya in Kriya in actual should be with Parmarth (परमार्थ) thoughts which is only possible when we have no desire for the deeds performed. There should be no attachment towards its outcome,nor there should be deed related self ego or attachment. Because when the deed is not for your benefit and comfort but for others then you become selfless(Akriya).
📸Credit-krishna.realfriend
#मराठी
ऋग्वेद १.३०.१५
आ यद्दुवः॑ शतक्रत॒वा कामं॑ जरितॄ॒णां ।
ऋ॒णोरक्षं॒ न शची॑भिः ॥
भाषांतर :
शतक्रतो - हे इन्द्र!
यत् - जे.
दुवः - धन.
आ - त्याचा प्राप्य त्याला मिळो.
तम् - त्याचे.
जरितृणाम् - स्तुति करणारे.
कामम् - अनुग्रह हेतु.
शचीभिः - रथाच्या समान क्रिया.
अक्षम् - धुरी वर.
न - बरोबर
आ ऋणोः - आणून ठेवणे.
भावार्थ:ह्या मंत्रात इन्द्रांना निवेदन केलेले आहे की जे आपली स्तुति करतात त्यांना त्यांचा प्राप्य धन आपण स्वयं त्यांचावर अनुग्रहाने धन अशा प्रकारे आणून ठेवता ज्या प्रकारे रथातून क्रिया होते.
गूढार्थ: इथे क्रिया मध्ये अक्रिया आणि अक्रिया मध्ये क्रिया ह्यांचे व्यवहार व परमार्थ तेंव्हा संभव असतो जेंव्हा आम्ही कर्म करत असतो पण त्याच्या मागे फळाची कामना आणि कर्मासक्ति,फळासक्ति आणि अहंकृति नसते.ह्या भावाने सगळे त्याग करून बहुजन हिताय बहुजन सुखायची भावना असते.तेंव्हा कर्त्याला काही बंधन राहत नाही,तो क्रियारहित होतो.
#हिन्दी
ऋग्वेद १.३०.१५
आ यद्दुवः॑ शतक्रत॒वा कामं॑ जरितॄ॒णां ।
ऋ॒णोरक्षं॒ न शची॑भिः ॥
अनुवाद:
शतक्रतो - हे इन्द्र!
यत् - जो।
दुवः - धन।
आ - उसका प्राप्य मिलना।
तम् - उसको।
जरितृणाम् - स्तुति करनेवाले।
कामम् - अनुग्रह हेतु।
शचीभिः - रथ के समान क्रिया।
अक्षम् - धुरे के।
न - समान।
आ ऋणोः - लाकर रखना।
भावार्थ:इस मंत्र में इन्द्र से निवेदन किया गया है कि जो भी धन स्तुति करनेवालों का प्राप्य है आप उनपर अनुग्रह के लिए धन उसी प्रकार लाकर रखते हैं जिस प्रकार आप रथ के समान ही अपनी क्रियाओं से उसे सामने लाते हैं।
गूढार्थ: यहां पर क्रिया में अक्रिया और अक्रिया मे क्रिया और व्यवहार में परमार्थ तब संभव है जब हम कर्म को करें तो उसमें न फल की कामना हो और न ही कर्मासक्ति ऩ ही फलासक्ति एवं अहंकृति की हो कि मैने किया है इस भाव को त्याग कर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की भावना हो।ये फिर कर्ता को बंधन में नहीं डालता क्योंकि तब वह क्रिया रहित हो जाता है।
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