DON'T ASK PARMATMA FOR WORLDLY FAVOURS, INSTEAD ASK FOR HIS COMPASSION.
Rig Ved 1.30.2
शिप्रि॑न्वाजानां पते॒ शची॑व॒स्तव॑ दं॒सना॑ ।
आ तू न॑ इंद्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥
Translation :
यः - Which. Or pure Somras.
शुचीनाम् - Near thousands of group.
शतम् - Thousands of group.
वा - Or.
समाशिरम् - The best quality of drug named Ashir mixed in Somras.
सहस्त्रम् वा - Near thousand types of groups.
निम्नम् न् - Water flowing downwards.
एदु रीयते - To reach.
Explanation:Here Shunah Shep Muni's disciples tell us that that if they wish to get Compassion and favour from Parmatma just as the water flows down as per its nature,similarly Indra reaches the Ashir mixed Somras kept in thousands of group,such Indradev is requested to grant them grace and compassion.
Deep meaning: Here the main aim is to acquire the favour and Compassion of Parmatma,just like a devotee yearns for Parmatma. Here Somras is not just a drink but has a different connotation. As per Shruti Bhagwati this would be a repetetive error. We get that fruit only when the tree has been planted beforehand of that particular fruit and the giver is nature.Our body is made up of five elements and it is a mere source or work.By constantly using the word Compassion and grace we are eliminating the ego.Because ego will take the credit for all the work. This is faulty belief. We have to surrender completely before the Deity , it could be your labour or worship etc.Then only you can find happiness. It is like a scientific experiment.First the propagation of theory or Principle, then investigation and then the results.
#मराठी
ऋग्वेद १.३०.२
शिप्रि॑न्वाजानां पते॒ शची॑व॒स्तव॑ दं॒सना॑ ।
आ तू न॑ इंद्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥
भाषांतर:
यः - जे.
शुचीनाम् - शुद्ध सोमरसाचा.
शतम् - शेकडो समूहातला.
वा - अथवा.
समाशिरम् - उत्तर प्रकाराचे द्रव्य आशिर नावाचा.
सहस्त्रम् वा - सहस्र समूहांमध्ये
निम्नम् न् - पाणी खाली वाहण्याची ची प्रकृती.
एदु रीयते - पोचणे.
भावार्थःइथे शुनःशेप मुनि इन्द्रांच्या अनुकंपाची प्रार्थना करून म्हणतात की ज्या प्रकारे पाण्याची प्रकृती खाली वाहण्याची असते त्याच प्रकारे इन्द्र शुद्ध सोमरसाचे शेकडो समूहांमध्ये किंवा आशिर युक्त सोमरसाचे शेकडो समूहांमध्ये पोचतात, त्या इन्द्राने आम्हास अनुग्रह दाखवावा.
गूढार्थ: इथे देवतांकडून अनुग्रह प्राप्त करण्याचे तात्पर्य आहे त्यांची विशेष कृपा मिळवावी.इथे क्षेत्र आणि क्षेत्रज्ञचा भाव आहे.इथे सोमरसाचा अर्थ मात्र पेय नसावा,कारण श्रुति भगवती त्याला पुनरावृत्ती दोष म्हणून मानतात.जसे बियाणे टाकल्यावर नंतर तो वृक्षाचे रूपात फळ देतो कारण देणारी तर प्रकृती आहे.आमचे शरीर पंचमहाभूताने निर्मित आहे पण ते मात्र एक कार्य किंवा साधन आहे.अनुकंपा किंवा अनुग्रह शब्दांचा प्रयोग केल्याने आमच्या मधे अहं जातो कारण हे शब्दांचे विस्मरण आमच्या मधे हे भाव आणत असतो की सगळं मी केले आहे.हे दोषपूर्ण आहे कारण की आम्ही एका उपाधी ने बांधले आहोत.आमच्यावर देवतांचा अनुग्रह तेंव्हा होइल जेंव्हा आम्ही संपूर्ण समर्पण करणार, हा श्रम असो, की तप असो किंवा अन्य काहीही असो.त्या नंतरच सुखाची प्राप्ती होइल. आम्ही धन्य होणार.हे सगळं वैज्ञानिक प्रयोगा सारखे आहे.प्रथम सिद्धांत नंतर प्रयोगातून फळ मिळेल.
#हिन्दी
ऋग्वेद १.३०.२
शिप्रि॑न्वाजानां पते॒ शची॑व॒स्तव॑ दं॒सना॑ ।
आ तू न॑ इंद्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥
अनुवाद:
यः - जो।
शुचीनाम् - शुद्ध सोमरस के।
शतम् - सैकडो समूहों के पास।
वा - अथवा।
समाशिरम् - उत्तम रीति का द्रव्य आशिर जो सोमरस में प्रयुक्त होता है।
सहस्त्रम् वा - सहस्त्र समूहों के पास।
निम्नम् न् - निचले स्थान पर जल का पहुँचना।
एदु रीयते - पहुँचना।
भावार्थःयहां शुनःशेप मुनि इन्द्र की अनुकम्पा की कामना करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार जल की प्रकृति है कि वह नीचे की ओर बहता है,उसी प्रकार इन्द्र शुद्ध सोमरस के सैंकडों समूहों के पास अथवा आशिर नामक द्रव्य से युक्त सोमरस के सैकडो समूहों के पास पहुंचते हैं,वे हमें अनुग्रहित करें।
गूढार्थ: यहां देवता से अनुग्रह और अनुकम्पा मांगने से तात्पर्य है उनकी विशेष कृपा प्राप्त करना। यहां क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ वाला भाव है।यहां सोमरस को पेय के रूप में नहीं लेना है। श्रुति भगवती उसे पुनरावृत्ति दोष मानती हैं। जैसा बीज डाला जाएगा वैसा फल मिलेगा।देनेवाली प्रकृति ही है। हमारा शरीर जो पंच महाभूतों से बना है वह कार्य या साधन है।अनुकंपा और अनुग्रह का प्रयोग करते रहने से हमारे भीतर अहं भाव नहीं पैदा होगा क्योंकि ऐसा न करने पर तब हमको लगने लगेगा की यह सब हमने किया है।यह दोषपूर्ण हैं,क्योंकि हम एक उपाधि से बंधे हैं।हमपर देवता अनुग्रह तब करेंगे जब हमारा संपूर्ण समर्पण हो।उसके बाद ही हम कृत्य कृत्य होंगे ।तभी शरणागति की स्वीकृति मिलती है जब हम कोई वस्तु अर्पण करते हैं।वे श्रम,तप इत्यादि हो सकते हैँ। तब कहीं जाकर सुख मिलेगा। बिल्कुल उसी तरह जैसे वैज्ञानिक सिद्घांतो में प्रयोग के बाद ही फल मिलता है।
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