Here happiness denotes drowning yourself in deep devotion. The relation with Parmatma is permanent and will remain with us in all the other births, the rest of the worldly relations are temporary. Our relationship with him is the only Truth and that is to immerse in his bhakti.The wide presence of Parmatma allows us to go on filling it with bhakti and there may be still an empty space remaining to be filled. This is the real essence of Bhakti @ Rig Ved 1.30.3
सं यन्मदा॑य शु॒ष्मिण॑ ए॒ना ह्य॑स्यो॒दरे॑ ।
स॒मु॒द्रो न व्यचो॑ द॒धे ॥
Translation
यत् - That.
शुष्मिणे - Strong.
मदाय - For Happiness.
सम् - It is right for.
एना हि - From this itself.
समुद्रो न - Like Ocean.
अस्य - This Indra.
उदरे - In the stomach.
व्यचः - Wide.
मधे - To carry.
Explanation -This mantra says that for the sake of Indra's Happiness this Somras in large quantities is right since Indradev's Ocean like wide stomach has the ability to carry that much.
Deep meaning: Here happiness denotes drowning yourself in deep devotion. The relation with Parmatma is permanent and will remain with us in all the other births, the rest of the worldly relations are temporary. Our relationship with him is the only Truth and that is to immerse in his bhakti.The wide presence of Parmatma allows us to go on filling it with bhakti and there may be still an empty space remaining to be filled. This is the real essence of Bhakti.
📸Credit-Om_love_light_om
#मराठी
ऋग्वेद १.३०.३
सं यन्मदा॑य शु॒ष्मिण॑ ए॒ना ह्य॑स्यो॒दरे॑ ।
स॒मु॒द्रो न व्यचो॑ द॒धे ॥
भाषांतर
यत् - जे.
शुष्मिणे - बळवंत.
मदाय - हर्षाच्या हेतु ने.
सम् - संगत असणे.
एना हि - ह्या मधून.
समुद्रो न - समुद्रा सारखा.
अस्य - हे इन्द्रांना.
उदरे - पोटात.
व्यचः - व्याप्ति.
दधे - धारण करणे.
भावार्थ -ह्या मंत्रा मधे म्हटलेले आहे की सोमरसाचा समूह शक्तिशाली इन्द्राच्या हर्षा सारखे आहे.कारण की इन्द्रांचे पोटाची व्याप्ति समुद्रासारखी असल्यामुळे हे सगळे धारण करू शकतो.
गूढार्थ: इथे हर्ष म्हणजे भक्तिच्या रसामध्ये आनंदपूर्वक विचरण करणे,कारण तोच संबंध स्थायिक आहे आणि जन्म जन्मांतर पर्यंत राहणार ,बाकी सर्व सांसारिक संबंध क्षणिक आणि अस्थायी आहेत.अाम्हास हा समजून घ्यावा लागेल की परमात्म्याची भक्तिच सत्य आहे.त्या भक्तिचा नदीत उतरून जाणे श्रेष्ठ आहे कारण की अन्य प्रकारांचे छंद क्षणिक आणि नुकसानकारक असतात.परमात्माची अथाह व्याप्तित जितके रस आम्ही भरू त्यात कमीच पडणार.जीवात्म्याला परमात्म्यात उतरून जाणे हेच भक्तिचा उद्रेक आहे.
#हिन्दी
ऋग्वेद १.३०.३
सं यन्मदा॑य शु॒ष्मिण॑ ए॒ना ह्य॑स्यो॒दरे॑ ।
स॒मु॒द्रो न व्यचो॑ द॒धे ॥
अनुवाद
यत् - जो।
शुष्मिणे - शक्तिशाली।
मदाय - हर्ष हेतु।
सम् - संगत होना।
एना हि - इसी से।
समुद्रो न - समुद्र जैसा।
अस्य - इस इन्द्र को।
उदरे - पेट में।
व्यचः - व्याप्ति।
दधे - धारण करना।
भावार्थ -इस मंत्र में कहा गया है कि सोमरस का समूह शक्तिशाली इन्द्र के हर्ष लिए संगत है।इसीलिये समुद्रजैसा इन्द्र के पेट की व्याप्ति इसे धारण कर सकता है।
गूढार्थ:यहां हर्ष का तात्पर्य भक्ति के रस में आनंदपूर्वक डूब जाने से है, इस विश्व मे सिर्फ परमात्मा का संबंध स्थायी है जो जन्म जन्मांतर पर्यंत रहेगा, बाकी सब सांसारिक संबंध क्षणिक और अस्थायी है। हमको समझना होगा कि परमात्मा से जुडना ही सत्य है। उसी की भक्ति के नशे में डूब जाना चाहिए,क्योंकि अन्य सारे मद क्षणिक हैं और नुकसानदेह भी। परमात्मा की अथाह व्याप्ति में जितना भी यह रस भरते जायेंगे वह फिर भी कम होगा। जीवात्मा का परमात्मा में डूब जाना ही तो भक्ति का उद्रेक है।
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