BE EGOLESS AND PRIDELESS TO ENJOY THE ETERNAL BLISNES.
Rig Ved 1.31.16
The main hurdle between Ishwar and jeev is our False Honour or Identity. You can also call it ego. Bhagwat Gita says that destroy your ego and lust. In order to destroy your ego,you have to become humble,not weak. When you develop insight into your weaknesses you become humble and egoless. So the Yajmans pray that their mistakes should be pardoned.
इ॒माम॑ग्ने श॒रणिं॑ मीमृषो न इ॒ममध्वा॑नं॒ यमगा॑म दू॒रात् ।
आ॒पिः पि॒ता प्रम॑तिः सो॒म्यानां॒ भृमि॑रस्यृषि॒कृन्मर्त्या॑नां ॥
Translation :
अग्ने - Agnidev!
नः - Ours.
इमाम् - This..
शरणिम् - Violent and without Yagya.
मीमृषः - Pardon.
दूरात् - From faraway land.
यम् - Which.
इमम् आध्वानम् - On this path.
अगाम - We tread.
सोम्यानाम् - Able to do Somyagya.
मर्त्यानाम् - Creator of Path.
आपिः - To get.
पिता - Guardian.
प्रमतिः - Intelligence.
भृमिः - Full of doubts.
ऋषिकृत् - Of Rishikul.
असि - To be.
Explanation:- This mantra is addressed to Agnidev. It requests him to pardon the Yajmans if they commit any mistake while performing Yagya. It also requests him to pardon the wayward people who do not perform Yagya. You are the guardian and brother to the Yajmans conducting Somyagya. You bless them to let good sense prevail in them.You are the creator of Rishikul.
Deep meaning:- The main hurdle between Ishwar and jeev is our False Honour or Identity. You can also call it ego. Bhagwat Gita says that destroy your ego and lust. In order to destroy your ego,you have to become humble,not weak. When you develop insight into your weaknesses you become humble and egoless. So the Yajmans pray that their mistakes should be pardoned.
📸Credit-Sakshi mam
#मराठी
ऋग्वेद १.३१.१६
इ॒माम॑ग्ने श॒रणिं॑ मीमृषो न इ॒ममध्वा॑नं॒ यमगा॑म दू॒रात् ।
आ॒पिः पि॒ता प्रम॑तिः सो॒म्यानां॒ भृमि॑रस्यृषि॒कृन्मर्त्या॑नां ॥
भाषांतर :
अग्ने - अग्निदेव!
नः - आमचे.
इमाम् - ह्या.
शरणिम् - व्रतलोप रूप हिंसााला।
मीमृषः - क्षमा करणे.
दूरात् - दूर देॆशीतले.
यम् - ज्या.
इमम् आध्वानम् - ह्या मार्गावर.
अगाम - आम्ही चालत आहो.
सोम्यानाम् - सोमरसाचे योग्य.
र्त्यनमपिपत- अनुष्ठातक पुरूषांचे.
प्रमतिः - बुद्धिमंत
भृमिः - भ्रांतिपूर्ण
ऋषिकृत् - ऋषिकुलाचे
असि - होणे.
भावार्थ:ह्या मंत्रात अग्निदेवांना निवेदन केलेले आहे की यज्ञ करण्यामध्ये जर काही त्रुटी होत असतील ते क्षमा करावी.जे लोक दिशाहीन होउन यज्ञाचा तिरस्कार करत आहेत, त्यांना पण क्षमा करावे आपण सोमयाग करणाऱ्या यजमानांना सद्बुद्धि प्रदान करा कारण आपण ऋषिकुलचे कुशल प्रणेते आहात.
गूढार्थ :ईश्वर आणि जीव मध्ये सर्वात मोठे विघ्न आहे उपाधि. हा विघ्न अहं मुळे असतो.गीता मध्ये लिहिलेले आहे की मान आणि मोह नष्ट करा. मान नष्ट करण्यासाठी आपल्यात दीनता आणावी लागणार. हे अंतर दृष्टी ने दीन भावने ने येत असते तेंव्हा आम्ही आपले दोष ओळखू शकतो. दीन होणे निर्बल होणे नव्हे, परंतु विना अभिमान होणे, हे असतो.ह्या प्रकारे मंत्रा मध्ये दोषांना क्षमा करण्यासाठी म्हटले आहे.
#हिन्दी
ऋग्वेद १.३१.१६
इ॒माम॑ग्ने श॒रणिं॑ मीमृषो न इ॒ममध्वा॑नं॒ यमगा॑म दू॒रात् ।
आ॒पिःs पि॒ता प्रम॑तिः सो॒म्यानां॒ भृमि॑रस्यृषि॒कृन्मर्त्या॑नां ॥
अनुवाद:
अग्ने - अग्निदेव!
नः - हमारी।
इमाम् - इस।
शरणिम् - व्रतलोप रूप हिंसा को।
मीमृषः - क्षमा करना।
दूरात् - दूर देश वाले।
यम् - जिस।
इमम् आध्वानम् - इस मार्ग पर।
अगाम - हम चलें हैं।
सोम्यानाम् - सोमरस के योग्य।
मर्त्यानाम् - अनुष्ठाता पुरूषों के।
आपिः - प्राप्त।
पिता - पालक।
प्रमतिः - बुद्धिमान।
भृमिः - भ्रांतिपूर्ण।
ऋषिकृत् - ऋषिकुल के।
असि - है।
भावार्थ:इस मंत्र में अग्निदेव से निवेदन किया गया है कि वे यज्ञ करते समय हमसे होनेवाली त्रुटियों को क्षमा करें। जो दिशाहीन हो गए हैं और यज्ञ नहीं कर रहें हैं उन्हें भी क्षमा करें। आप सोमरस देनेवालों के पिता और बन्धु हो। आप सबको सद्बुद्धि प्रदान करते हो और ऋषिकुल के कुशल प्रणेता हैं।
गूढार्थ: ईश्वर और जीव के बीच में सबसे बडा विध्न है उपाधि।यह विध्न अहं को लेकर है।गीता मे लिखा है कि मान और मोह को नष्ट करो।मान को नष्ट करने के लिए अपने भीतर दीनता लाना होगा।दीनता अंतर्रदृष्टि से अायेगी, जब हम अपने भीतर के दोष पहचानने लगेंगे।दीनता का तात्पर्य निर्बल नही,बल्कि निराभिमान होना है। इस प्रकार से इस मंत्र मे दोषों को क्षमा करने की बात कही गयी है।
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