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Writer's pictureAnshul P

RV 1.31.17

Updated: Sep 27, 2020


ALTHOUGH AGNI IS PRESENT IN EVERYWHERE ,IT IS ALSO DETACHED FROM IT.


Rig Ved 1.31.17


Here Agni denotes Energy. Without energy our body is lifeless. Agnidev is omniscient, He is Parmatma, The energy provider. Agni is present in all our body parts, in one and all,in each thing and everything. There is a shruti in Kathopnishad that says that Agnidev is one, although he is Omnipresent, He is detached from all. Although we are attached to the Supreme, then too we are detached from him.

Here it is said that each of our senses represent the devtas. But they will be considered divine when our senses are virtuous. Agnidev is requested that may he help our senses become magnificent, strong, contented and make our mind too contented. Let divine power prevail in our senses. When our senses are in order, Practically the whole world will seem joyous.


म॒नु॒ष्वद॑ग्ने अंगिर॒स्वदं॑गिरो ययाति॒वत्सद॑ने पूर्व॒वच्छु॑चे ।

अच्छ॑ या॒ह्या व॑हा॒ दैव्यं॒ जन॒मा सा॑दय ब॒र्हिषि॒ यक्षि॑ च प्रि॒यं ॥


Translation :


मनुस्वत् - Like Manu.


अग्ने - Agnidev.


अंगिरास्वत् - Like Angira.


अंगिरः - Moving.


ययातिवत् - Like Yayati.


सदने - Place where devtas are worshipped.


पूर्ववत् - Like men before you.


शुचे - Pure.


अच्छ - Before your face.


याहि - To go.


अा वह - To come.


दैव्यम् - With devtas.


जनम् - For people


आ सादय् - To sit.


बर्हिषी - On kusha mat.


यक्षि - To give.


प्रियम् - Havi.


च - And.


Explanation:This mantra is addressed to Agnidev. It says" Oh sacred Angira Agnidev ! Whose body is full of fire,we request to you that along with Manu,Angira and Yayati You also bring the devtas to Yagyashala and grace the place. Also offer them the mat made of Kusha and honour them by offering Havi.


Deep meaning: Here Agni denotes Energy. Without energy our body is lifeless. Agnidev is omniscient, He is Parmatma, The energy provider. Agni is present in all our body parts, in one and all,in each thing and everything. There is a shruti in Kathopnishad that says that Agnidev is one, although he is Omnipresent, He is detached from all. Although we are attached to the Supreme, then too we are detached from him.

Here it is said that each of our senses represent the devtas. But they will be considered divine when our senses are virtuous. Agnidev is requested that may he help our senses become magnificent, strong, contented and make our mind too contented. Let divine power prevail in our senses. When our senses are in order, Practically the whole world will seem joyous.




ऋग्वेद १.३१.१७


म॒नु॒ष्वद॑ग्ने अंगिर॒स्वदं॑गिरो ययाति॒वत्सद॑ने पूर्व॒वच्छु॑चे ।

अच्छ॑ या॒ह्या व॑हा॒ दैव्यं॒ जन॒मा सा॑दय ब॒र्हिषि॒ यक्षि॑ च प्रि॒यं ॥


भाषांतर :


मनुस्वत् - मनु सारखे.


अग्ने - अग्निदेव!


अंगिरास्वत् - अंगिरा सारखे.


अंगिरः - गमनशील.


ययातिवत् - ययाति सारखे.


सदने - देव यजन स्थानावर.


पूर्ववत् - अन्य पूर्ववर्ती पुरूषां सारखे.


शुचे - शुद्ध.


अच्छ - मुखी समोर.


याहि - जाणे


अा वह - यावे.


दैव्यम् - देवां बरोबर.


जनम् - जना साठी.


आ सादय् - बसणे.


बर्हिषी - कुशावर.


यक्षि - देणे.


प्रियम् - हवि.


च - आणि.


भावार्थ:

ह्या मंत्रात अग्निदेवांना प्रार्थना केली आहे की, हे पवित्र अंगिरा अग्निदेव! ज्यांचे शरीर अग्नि ने व्याप्त आहे,त्यांना निवेदन आहे की आपण मनु,अंगिरा आणि ययाति ह्यांचे सोबत देवतांना आणून यज्ञस्थळ सुशोभित करा.त्यांना कुशाचे आसन देउन सन्मानित करत हवि प्रदान करावी.


गूढार्थ:इथे अग्निचे तात्पर्य ऊर्जा आहे.ऊर्जा नसल्यास शरीर जड होते.अग्निदेव सर्वव्यापी आहेत,परमात्मा आहेत.ते समस्त शरीरास ऊर्जा प्रदान करतात समस्त अंगांना,समष्ठित,व्यष्ठित सर्वात अग्नि व्याप्त आहे.कठोपनिषद्ची श्रुति मध्ये पण लिहिलेले आहे की ज्या प्रकारे एक अग्निदेव समस्त लोकांमध्ये व्याप्त असून त्यातून असंग आहे.त्याच प्रकारे एक अात्मा सर्मवांध्ये व्याप्त असून पण अलिप्त आहेत.

इथे समस्त इन्द्रियांमध्ये प्रत्येक देवताची कल्पना केली गेली आहे.परंतू ह्याचा मध्ये देवत्व तेंव्हा होणार जेंव्हा हे इन्द्रिये सदाचारी होणार. ईश्वरांना प्रार्थना आहे की त्यांनी आमची इन्द्रिय तेजस्वी,ओजस्वी असतील,त्यात तुष्टि असो आणि मन संतुष्ट असो.इथे अग्निदेव समस्त देवतांना आणवावे आणि त्यांना तुष्ट करावे.समस्त इन्द्रियां मध्ये दैवी गुण विकसित करावेत. जर इन्द्रिय सदाचारी होतिल तेंव्हा व्यवहारिक संसार पण आनंद प्रदान करणारा होइल.




ऋग्वेद १.३१.१७


म॒नु॒ष्वद॑ग्ने अंगिर॒स्वदं॑गिरो ययाति॒वत्सद॑ने पूर्व॒वच्छु॑चे ।

अच्छ॑ या॒ह्या व॑हा॒ दैव्यं॒ जन॒मा सा॑दय ब॒र्हिषि॒ यक्षि॑ च प्रि॒यं ॥


अनुवाद:


मनुस्वत् - मनु के समान।


अग्ने - अग्निदेव !


अंगिरास्वत् - अंगिरा के समान।


अंगिरः - गमनशील।


ययातिवत् - ययाति के समान।


सदने - देव यजन स्थान में।


पूर्ववत् - अन्य पूर्ववर्ती पुरूषों जैसे।


शुचे - शुद्ध।


अच्छ - मुख के सामने।


याहि - जाना।


अा वह - आइए।


दैव्यम् - देवों के साथ।


जनम - जन को।


च - और।


सादय् - बैठना।


बर्हिषी - कुशा पर।


यक्षि - देना।


प्रियम् - हवि।


भावार्थ:इस मंत्र में अग्निदेव से प्रार्थना की गई है कि " हे पवित्र अंगिरा अग्निदेव! जो अंगों में संव्याप्त अग्नि ही है,आप से निवेदन है कि आप मनु ,अंगिरा ऋषि और ययाति को देवताओ को साथ लेकर यज्ञ स्थल को सुशोभित करें। उन्हें कुश के आसन पर सुशोभित करते हुए हवि देकर सम्मानित करें।


गूढार्थ: यहां अग्नि का तात्पर्य ऊर्जा है। बिना ऊर्जा के शरीर जड है।अग्निदेव सर्वव्यापक हैं परमात्मा हैं,समस्त शरीर को चेतनता प्रदान करते हैं। समस्त अंगों में,व्यष्ठि,समष्टि सब में अग्नि व्याप्त है। कठोपनिषद् की श्रुति भी यहीं कहती है कि जिस प्रकार से एक ही अग्निदेव हैं,समस्त लोकों में व्याप्त होते हुए भी इससे असंग हैं। इस प्रकार सभी में एक ही आत्मा व्याप्त होते हुए भी उससे बाहर है।

यहां समस्त इंद्रियों में प्रत्येक देवता की कल्पना की गई है। इसमें देवत्व तभी होगा जब समस्त इन्द्रियां सदाचारी हों।अग्निदेव से प्रार्थना की जा रही है कि समस्त इन्द्रियां, अंग और उप अंग तेजस्वी हों,ओजस्वी हों,उनमें तुष्टि हो और मन की संतुष्टि हो। यहाँ अग्निदेव समस्त देवताओं को लाकर के तुष्टि प्रदान करें। समस्त इन्द्रियों के दैवी गुण को विकसित करने के लिए कहा जा रहा है। जब इन्द्रियां सदाचारी होंगी तो व्यवहारिक जगत भी आनंददायी हो जाएगा।



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