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Writer's pictureAnshul P

RV 1.31.6

Updated: Sep 16, 2020


IDENTIFY YOUR VICES,THEY ARE YOUR REAL ENEMIES.


Rig ved 1.31.6


Our vices are our greatest enemies. To destroy these vices first you have to identify them.These vices can be only destroyed by Parmatma who is the knowledge incarnate and radiance incarnate. If parmatma destroys these vices,there will be no enemies left. There is no external enemy but our internal vices which also play havoc with our mind and body. Vices like our nature,lust,temperament and upbringing destroy us. Parmatma alone can liberate us from these vices.


त्वम॑ग्ने वृजि॒नव॑र्तनिं॒ नरं॒ सक्म॑न्पिपर्षि वि॒दथे॑ विचर्षणे ।

यः शूर॑साता॒ परि॑तक्म्ये॒ धने॑ द॒भ्रेभि॑श्चि॒त्समृ॑ता॒ हंसि॒ भूय॑सः ॥


Translation :


विचर्षणे - Oh the special Knowledgeble One!


अग्ने - Oh Agnidev!


यः - Those.


त्वम् - You.


परितक्म्ये - Can go from all sides.


धने - Like Wealth.


शूरसाता - War by the brave men.


दभ्रेभिश्चित् - Men who are not brave.


समृता - Well fought out war.


भूयसः - Adult adversary.


हंसि - To kill.


वृजिनवर्तनिम् - Sinful path.


नरम् - For men.


सक्मन् - Can be taken along.


विदथे - In deeds.


पिपर्षि - To make one with good deeds.


Explanation :This mantra is addressed to Agnidev. It says" Oh the special and all knowing Agnidev! You rescue people from sinful path.When many enemies strike from all sides you along with few men kill the enemies and save us.


Deep meaning: Our vices are our greatest enemies. To destroy these vices first you have to identify them.These vices can be only destroyed by Parmatma who is the knowledge incarnate and radiance incarnate. If parmatma destroys these vices,there will be no enemies left. There is no external enemy but our internal vices which also play havoc with our mind and body. Vices like our nature,lust,temperament and upbringing destroy us. Parmatma alone can liberate us from these vices.



#मराठी


ऋग्वेद १.३१.६


त्वम॑ग्ने वृजि॒नव॑र्तनिं॒ नरं॒ सक्म॑न्पिपर्षि वि॒दथे॑ विचर्षणे ।

यः शूर॑साता॒ परि॑तक्म्ये॒ धने॑ द॒भ्रेभि॑श्चि॒त्समृ॑ता॒ हंसि॒ भूय॑सः ॥


भाषांतर :


विचर्षणे - हे विशिष्ट ज्ञानस्वरूप!


अग्ने - हे अग्ने!


यः - जे.


त्वम् - आपण.


परितक्म्ये - सर्व बाजूने जाउ शकतो.


धने - धन सारखा.


शूरसाता - शूर लोकां द्वारे युद्ध.


दभ्रेभिश्चित् - बिना शौर्याचे पुरूष.


समृता - चांगल्या रीतीने युद्ध.


भूयसः - प्रौढ प्रतिपक्षी.


हंसि - मारणे.


वृजिनवर्तनिम् - पाप मार्गे.


नरम् - पुरूषांच्या.


सक्मन् - बरोबरची.


विदथे - कर्मात.


पिपर्षि - चांगल्या कर्मांचा करणे.


भावार्थ:ह्या मंत्रात अग्निदेवांना संबोधित करून म्हटले आहे की " हे विशेष ज्ञानी अग्निदेव! आपण पाप कर्मात लिप्त असलेल्या लोकांचा उद्धार करतात.अनेक शत्रूंनी चारही बाजूने आक्रमण केल्यावर आपण थोडी मानसं घेउन शत्रूंचा नाश करता.


गूढार्थ:आमचा सर्वात मोठा शत्रू आहे विकार.परंतू विकारावर विजयी होण्याआधी त्यांची ओळख होणे अावश्यक असते.विकार किंवा अंधकारास ज्ञानस्वरूप आणि प्रकाशस्वरूप परमात्मा समाप्त करू शकतो.जर परमात्मा आम्हाला विकार रहित करतो तर आम्हाला कोणतेच शत्रू राहणार नाहीत. शत्रू कोणी बाहेरचे नसून आमचे आंतरिक विकार आहेत जे आमचे शरीरास आणि मनाला नुकसान करतात. वासना,प्रवृत्ती, संस्कार आणि स्वभावाचे स्वरूपात विकार आमच्या आत आहेत.परमात्मा आम्हास विकार मुक्त करतो.




#हिन्दी

ऋग्वेद १.३१.६


त्वम॑ग्ने वृजि॒नव॑र्तनिं॒ नरं॒ सक्म॑न्पिपर्षि वि॒दथे॑ विचर्षणे ।

यः शूर॑साता॒ परि॑तक्म्ये॒ धने॑ द॒भ्रेभि॑श्चि॒त्समृ॑ता॒ हंसि॒ भूय॑सः ॥


अनुवाद:


विचर्षणे - हे विशिष्ट ज्ञानस्वरूप!


अग्ने - हे अग्ने!


यः - जो।


त्वम् - आप ।


परितक्म्ये - सब ओर से जा सकना।


धने - धन जैसा।


शूरसाता - शूरों द्वारा युद्ध।


दभ्रेभिश्चित् - बिना शौर्य के पुरूषों द्वारा।


समृता - अच्छी तरह से युद्ध।


भूयसः - प्रौढ प्रतिपक्षी।


हंसि - मारना।


वृजिनवर्तनिम् - पाप मार्ग की ओर।


नरम् - पुरूष को।


सक्मन् - साथ लेने लायक।


विदथे - कर्म में।


पिपर्षि - अच्छे कर्मो वाला बनाते हैं।


भावार्थ: इस मंत्र मे अग्निदेव को संबोधित करते हुए कहा गया है कि, हे विशिष्ट दृष्टा अग्निदेव!आप पाप करनेवालों का भी उद्धार करते हो।बहुत से शत्रुओं का हर ओर से आक्रमण होने पर भी बहुत थोडे से पुरूषों को लेकर शत्रुओं को मार गिराते हो।



गूढार्थ:हमारे सबसे बडे शत्रु हैं विकार।इनको समाप्त करने से पूर्व इनको पहचान लेना आवश्यक है। विकार अथवा अंधकार को ज्ञानस्वरूप और प्रकाशस्वरूप परमात्मा ही मिटा सकते हैं। परमात्मा हमें विकाररहित बना दे तो हमारा कोई शत्रु ही नहीं। शत्रु कोई बाहरी नहीं हमारे आंतरिक विकार हैं जो हमारे शरीर और मन को नुकसान पहुँचाते हैं। वासना,प्रवृति, संस्कार और स्वभाव के रूप में विकार हमारे भीतर है। परमात्मा इनको समाप्त करके हमें मुक्ति दिलाता है।



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