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Writer's pictureAnshul P

RV 1.32.1

Updated: Sep 29, 2020


PURIFICATION OF ENVIRONMENT THROUGH TREE PLANTATION.


Rig ved 1.32.1


Indra means senses which denote speed. Speed denote your deeds or karma. Karma means Purushartha or hard work. Yagya is the result of purushartha which again is the reason for rains. Rains give you foodgrains which are the main source of life. So water is of great importance to our life. Yagya is Purushartha. It all denotes that you have to plant more trees which will result in purification of nature. So plant more trees which are capable of stopping the clouds.


इंद्र॑स्य॒ नु वी॒र्या॑णि॒ प्र वो॑चं॒ यानि॑ च॒कार॑ प्रथ॒मानि॑ व॒ज्री ।

अह॒न्नहि॒मन्व॒पस्त॑तर्द॒ प्र व॒क्षणा॑ अभिन॒त्पर्व॑तानां ॥


Translation :


इन्द्रस्य नु - Of Indra.


वी्र्याणि - Courageous.


प्र वोचम् - To describe


यानि - Which.


चकारम् - To do.


प्रथमानिम् - First.


वज्री - With Vajra.


अहन् - To destroy


अहिम् - Of clouds.


अनु - After that.


अपः - Of water.


तदर्द - Water falling on ground.


वक्षणाः - Flowing river.


प्र अभिनत् - Cutting it for water to flow.


पर्वतानम् - Between mountains.


Explanation :In this mantra Hiranyastup Rishi is praising Indra.He says that with the forceful knocking of his Vajra,Indra has cut the clouds to get rains,cut mountains for the river to flow.He has performed many courageous activities. He has used his Vajra to break mountains and clouds for the water to flow.


Deep meaning: Indra means senses which denote speed. Speed denote your deeds or karma. Karma means Purushartha or hard work. Yagya is the result of purushartha which again is the reason for rains. Rains give you foodgrains which are the main source of life. So water is of great importance to our life. Yagya is Purushartha. It all denotes that you have to plant more trees which will result in purification of nature. So plant more trees which are capable of stopping the clouds.



#मराठी


ऋग्वेद १.३२.१


इंद्र॑स्य॒ नु वी॒र्या॑णि॒ प्र वो॑चं॒ यानि॑ च॒कार॑ प्रथ॒मानि॑ व॒ज्री ।

अह॒न्नहि॒मन्व॒पस्त॑तर्द॒ प्र व॒क्षणा॑ अभिन॒त्पर्व॑तानां ॥


भाषांतर :


इन्द्रस्य नु - इन्द्राचे.


वी्र्याणि - पराक्रम.


प्र वोचम् - वर्णन करणे.


यानि - जे.


चकारम् - करणे.


प्रथमानिम् - प्रथम.


वज्री - वज्रयुक्त.


अहन् - मारणे.


अहिम् - मेघा ना.


अनु - ह्याचे नंतर.


अपः - पाण्याचे.


तदर्द - पाणी भूमिवर पडणे.


वक्षणाः - प्रवाहमान नदी.


प्र अभिनत् - तोडून प्रवाहित होणे.


पर्वतानम् - पर्वतांमध्ये


भावार्थ:ह्या मंत्राच्या मध्यमातून हिरण्यस्तूप ऋषी इन्द्रदेवांना म्हणत आहे की त्या मेघांना फोडून वर्षाव करणारे आहेत तसेच पर्वतांना फोडून नदीचे पाट निर्माण करणारे आहेत. असे वीरतापूर्ण कार्य करणार्‍या इन्द्राला ते वंदन करतात .त्यांनी अनेक वीरतापूर्ण कार्य केलेले आहेत. वज्राने प्रहार करून त्यांनी पाण्याचे प्रवाहासाठी आपले व्रजाचा उपयोग मेघ व पर्वत फोडण्यासाठी केला.


गूढार्थ: इन्द्राचे तात्पर्य इन्द्रियांतून आहे.इन्द्रियांचे तात्पर्य गतिशी आहे.गतिचे अर्थ आहे कर्म आणि त्याचे अर्थ अाहे पुरूषार्थ. इथे यज्ञाची प्रशंसा करत म्हटले आहे की परम पुरूषार्थाने यज्ञ होतो ज्याचे फलस्वरूप वर्षा होते,ज्याने अन्न होताे.अन्न आमचे जीवन आहे.जीवनासाठी पाणी आवश्यक आहे.यज्ञ पुरूषार्थ आहे.ह्याचे अर्थ हे झाले की आम्हास अतिरिक्त वनस्पतीची लागवड केली पाहिजे ज्यामुळे प्रकृतीचे शुद्धिकरण होइल.म्हणून मेघांना थांबवण्यासाठी जास्त मात्रेत वृक्ष लावले पाहिजे.



#हिन्दी

ऋग्वेद १.३२.१


इंद्र॑स्य॒ नु वी॒र्या॑णि॒ प्र वो॑चं॒ यानि॑ च॒कार॑ प्रथ॒मानि॑ व॒ज्री ।

अह॒न्नहि॒मन्व॒पस्त॑तर्द॒ प्र व॒क्षणा॑ अभिन॒त्पर्व॑तानां ॥


अनुवाद:


इन्द्रस्य नु - इन्द्र के।


वी्र्याणि - पराक्रम


प्र वोचम् - वर्णन करना।


यानि - जो।


चकारम - करना।


प्रथमानि - पहले।


वज्री - वज्रयुक्त।


अहन् - मारना।


अहिम् - मेघ को।


अनु - इसके बाद।


अपः - जल का।


तदर्द - जल भूमि पर गिराना।


वक्षणाः - प्रवाहमान नदी।


प्र अभिनत् - काटकर प्रवाहित।


पर्वतानम् - पर्वतों के मध्य।


भावार्थ: इस मंत्र में हिरण्यस्तूप ऋषि इन्द्रदेव की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि बादलो को तोडकर पानी बरसानेवाले,पर्वतीय नदी के तट को निर्मित करने वाले,वज्र को धारण करनेवाले इन्द्र के कार्य का वे वंदन करते हैं।उनके कर्ई वीरतापूर्ण कार्य सामने हैं।वे जल का वज्र से भेदन करके वर्षा करते हैं,रूके हुए जल को प्रवाहमान करते हैं।


गूढार्थ: इन्द्र का तात्पर्य इन्द्रियों से है,और इन्द्रियों का तात्पर्य गति से है। गति का अर्थ हुआ कर्म और कर्म का अर्थ हुआ पुरूषार्थ। यहां यज्ञ की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि परम पुरूषार्थ से यज्ञ होता है जिसके फलस्वरूप वर्षा होती है,इससे अन्न होता है जो जीवन है।हमारे जीवन के लिए जल अति महत्व पूर्ण है।यज्ञ ही पुरूषार्थ है। इसका यह भी अर्थ हुआ की हमे और अधिक वनस्पति लगाने चाहिए जिससे प्रकृति का शोधन हो।शोधन के लिए वृक्ष बडी मात्रा में लगाए जायें ताकि वे बादल को रोक सकें।




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