BRAHM/ ATMA IS CONSTANT, EVERYTHING ELSE IS DESTRUCTIBLE
Rig ved 1.32.6
अ॒यो॒द्धेव॑ दु॒र्मद॒ आ हि जु॒ह्वे म॑हावी॒रं तु॑विबा॒धमृ॑ जी॒षं ।
नाता॑रीदस्य॒ समृ॑तिं व॒धानां॒ सं रु॒जानाः॑ पिपिष॒ इंद्र॑शत्रुः ॥
Translation ;
दुर्मद - Proud.
अयोध्दा इव - Incapable warrior.
हि - Sure.
महावीरम् - Strong.
तुविबाधम् - Pleases everyone.
ऋषीजम् - Drinks Somras upto last drop.
Explanation : In this mantra the rishi says that Proudly Vritrasur had thought that he could defeat the invincible Indra. Courageous Warrior Indra never lost a battle. Therefore after Indra's deadly strike he fell down breaking the banks of the river.
Deep meaning: Through our False Intellect, False Pride, False Identity, False body and False Worldly relations, we think we are seperate from Parmatma although we are one soul but we differentiate and we think we are not the same. When Brahm and Atma come together the Knowledge destroys the ignorance. It is then only our jeev or our conscience gets the advait feeling of "Not two, But one". Then there is no reason for it to conquer this World, Since you actually become Brahma. Therefore right from ego upto your body, Whatever the type of nature be it is changeable and false. Atma is unchangeable, It remains constant.
📸Credit - Vimanika.com
#मराठी
ऋग्वेद १.३२.६
अ॒यो॒द्धेव॑ दु॒र्मद॒ आ हि जु॒ह्वे म॑हावी॒रं तु॑विबा॒धमृ॑ जी॒षं ।
नाता॑रीदस्य॒ समृ॑तिं व॒धानां॒ सं रु॒जानाः॑ पिपिष॒ इंद्र॑शत्रुः ॥
भाषांतर ;
दुर्मद - अहंकारी.
अयोध्दा इव - असमर्थ योद्धा.
हि - निश्चित.
महावीरम् - बलवान.
तुविबाधम् - सर्वाना अभिभूत करणारा.
ऋषीजम् - अंतिम थेंब पर्यंत सोम प्राशन करणारा.
आ जुह्वे - आवाहन देणारा.
अस्य - ह्यांना.
वधानाम् - शस्त्रांना.
समृतिम् - प्रहार.
न अतारीत् - पार करणे असंभव.
इन्द्रशत्रु - इन्द्राचे शत्रु वृत्रासुर.
रूजाना - नदींचा.
सने पिपिषे - ध्वस्त करणे.
भावार्थ:ह्या मंत्रात ऋषी म्हणत आहेत की अभिमानी वृत्रासुर ने हे समजून इन्द्रांना आवाहन केले होते की तो अजेय आहे.पराक्रमी योद्धा इन्द्र प्रत्येक वेळा विजयी असतो. म्हणून वृत्रासुर इन्द्राचे घातक प्रहाराने नदीचे काठावर धारातीर्थी पडला.
गूढार्थ: आम्ही परमात्माला मिथ्या अभिमान, मिथ्या बुद्धी, मिथ्या अस्तित्व, मिॆथ्या देह आणि नाती मधून परिच्छिन्न होउन त्यातून एकीभूत होण्याचा दोषातून स्वयं सर्वात्मक होउन ही मातीचा घडा प्रमाणे स्वतःहून पृथक पाहतो.ब्रह्म आणि आत्माचा एकत्व ज्ञानरूप अग्नि अविद्या रूप वना ला भस्म करून टाकतो. हे नष्ट झाल्यावर जेंव्हा जीव अद्वैत भावाला प्राप्त होतो तेंव्हा पुनः संसार प्राप्तिचा काहीही कारण नसतो.म्हणून अहंकारातून देहा पर्यंत प्रकृतिचे जितके प्रकार आहेत ते प्रत्येक क्षणी परिवर्तित होतात म्हणून ते असत्य आहेत.आत्मा मध्ये काहीही परिवर्तन नसतो म्हणून तो सदा एकरस असते.
#हिन्दी
ऋग्वेद १.३२.६
अ॒यो॒द्धेव॑ दु॒र्मद॒ आ हि जु॒ह्वे म॑हावी॒रं तु॑विबा॒धमृ॑ जी॒षं ।
नाता॑रीदस्य॒ समृ॑तिं व॒धानां॒ सं रु॒जानाः॑ पिपिष॒ इंद्र॑शत्रुः ॥
अनुवाद;
दुर्मद - घमंडी।
अयोध्दा इव - असमर्थ योद्धा।
हि - निशिचत।
महावीरम् - बलवान।
तुविबाधम् - सबको अभिभूत करनेवाले।
ऋषीजम् - अंतिम बूंद तक सोमपान करनेवाले इन्द्र।
आ जुह्वे - चुनौती देना।
अस्य - इसको।
वधानाम् - शस्त्रों के।
समृतिम् - प्रहार।
न अतारीत् - पार नहीं पाना।
इन्द्रशत्रु - इन्द्र के शत्रु वृत्रासुर।
रूजाना - नदियों को।
सम् पिपिषे - कुचलना।
भावार्थ:इस मंत्र में ऋषि कहते हैं कि घमंडी वृत्र ने इन्द्र को यह समझकर चुनौती दी कि वह अजेय है। इन्द्रदेव एक पराक्रमी योद्धा हैं जो शत्रुओं से हमेशा विजयी रहे हैं। इसलिए वृत्रासुर इन्द्र के घातक प्रहार से नदी के तट को तोडते हुए गिर पडा।
गूढार्थ:परमात्मा को हम अपनी मिथ्या बुद्धि, मिथ्या अभिमान, मिथ्या अस्तित्व, मिथ्या देह और रिश्तों से परिच्छिन्न होकर उससे एकीभूत हो जाने के दोष से स्वयं सर्वात्मक होते हुए भी मिट्टी से घडे के समान अपने ही से पृथक देखता है।ब्रह्म और आत्मा का एकत्व ज्ञानरूप अग्नि अविद्या रूप वन को भस्म कर देता है।इसके नष्ट होने पर जब जीव को अद्वैत भाव की प्राप्ति हो जाती है तब उसको पुनः संसार प्राप्ति का कोई कारण नहीं रह जाता। इसलिए अहंकार से ले लेकर देह तक प्रकृति के जितने प्रकार हैं वे हर क्षण बदलने से असत्य हैं,आत्मा मे कोई परिवर्तन नही होता है,वह सदा एकरस है।
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