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Writer's pictureAnshul P

RV 1.32.7

Updated: Oct 5, 2020


CONTROL YOUR INNER EMOTIONS TO RECOGNISE YOUR ATMA


Rig Ved 1.32.7


Here the war between Devtas and Asurs is mentioned, which is also referred in the Puraans. As per scriptures, it is said that to kill Vritrasur, Rishi Dadhichi had to donate his bones to make Vajra. The spiritual meaning of this is that our inner inclination of mind and emotions is Vritrasur. They are continuous, One coming after another. This chain of Vices does not stop until we dont make an effort to destroy our mental weakness. Your mind is always wandering between them. You have to destroy them through your intelligence. You should realize that what you see and feel is all false. Until your mind is not consistent and firm and you recognise their fallacy your ignorance will also not be destroyed. Once you overcome this you regain your Atma which was always near you. Then these feelings and emotions are shortlived and go away just as the wheel run for only a short distance if they are removed from its axis. The wheels ultimately have to fall down.


अ॒पाद॑ह॒स्तो अ॑पृतन्य॒दिंद्र॒मास्य॒ वज्र॒मधि॒ सानौ॑ जघान ।

वृष्णो॒ वध्रिः॑ प्रति॒मानं॒ बुभू॑षन्पुरु॒त्रा वृ॒त्रो अ॑शय॒द्व्य॑स्तः ॥


Translation :-


अपाद् - Again.


अहस्तः - Without hands.


अपृतन्यत् - Wish for war.


इंद्रम् - Of Indra.


अस्य - This.


वज्रम् - With Vajra.


व्रधिः - Impotent.


अधि यसानाै - On shoulders.


आ जाघान - To attack from front.


वृष्णः - Strong.


प्रतिमानम् - Same.


बुभूषण् - Wishing to do.


पुरूत्रा - In many places.


वृत्रः - Vritrasur.


अशयत् - To fall.


व्यस्तः - The one with shattered body.


Explanation :This mantra says that although Vritrasur's hands and legs were cut off, He still went on fighting. Indradev then struck his mountain like shoulders. Then also he did not fall. Indra continuously went on striking him, So he fell down in a heap.


Deep meaning: Here the war between Devtas and Asurs is mentioned, which is also referred in the Puraans. As per scriptures, it is said that to kill Vritrasur, Rishi Dadhichi had to donate his bones to make Vajra. The spiritual meaning of this is that our inner inclination of mind and emotions is Vritrasur. They are continuous, One coming after another. This chain of Vices does not stop until we dont make an effort to destroy our mental weakness. Your mind is always wandering between them. You have to destroy them through your intelligence. You should realize that what you see and feel is all false. Until your mind is not consistent and firm and you recognise their fallacy your ignorance will also not be destroyed. Once you overcome this you regain your Atma which was always near you. Then these feelings and emotions are shortlived and go away just as the wheel run for only a short distance if they are removed from its axis. The wheels ultimately have to fall down.



📸Credit - annu_gods


#मराठी


ऋग्वेद१.३२.७


अ॒पाद॑ह॒स्तो अ॑पृतन्य॒दिंद्र॒मास्य॒ वज्र॒मधि॒ सानौ॑ जघान ।

वृष्णो॒ वध्रिः॑ प्रति॒मानं॒ बुभू॑षन्पुरु॒त्रा वृ॒त्रो अ॑शय॒द्व्य॑स्तः ॥


भाषांतर :


अपात् - पुनः.


अहस्तः - विना हाताचे प्रयोग करणे.


अपृतन्यत् - युद्ध करण्याची इच्छा.


इंद्रम् - इन्द्रांना.


अस्य - ह्यास.


वज्रम् - वज्राचे.


अधि सानाै - खांद्यावर.


आ जाघान - समोरून प्रहार करणे.


वृष्णः - शक्तिशाली.


वध्रिः - नपुंसकलिंगी.


प्रतिमानम् - समान.


बुभूषण् - होउन जाण्याची इच्छा.


पुरूत्रा - अनेक स्थानांवर.


वृत्रः - वृत्र.


अशयत् - पडणे.


व्यस्तः - विखुरलेले अंग.


भावार्थ:ह्या मंत्रात म्हटले आहे की वृत्रासुराचे हात पाय कापले गेले असून ही तो लढण्याचे प्रयास करत राहिला. इन्द्रदेवांने त्याचे पर्वतासारखे खांद्यावर जोराने प्रहार केले,परंतु तो लढत राहिला.अंततः इन्द्रदेवांकडून होणार्या अविरत प्रहाराने तो उध्वस्त होउन पृथ्वीवर पडला.


गूढार्थ: इथे देवतांचे बरोबर असुरांचे संग्रामाचा वर्णन आहे.पुराणांमध्ये पण हे कथा सापडतात. कथानकानुसार वृत्रासुरला मारण्यासाठी दधीचि ऋषींची अस्थी घेण्यात आली होती ज्याने वज्रची निर्मिती केली गेली होती आणि त्याने असुराचा वध झाला.ह्याचे आध्यात्मिक अर्थ आहे की आमचे चित्तची वृत्ति वृत्रासुर आहे आणि ते एका मागे दूसर्या येतात.विकारांची श्रृंखला समाप्त होत नसते.जो पर्यंत मनोनाश होत नाही तो पर्यंत मन अनेक योनी मध्ये फिरत असतो. अनेक वेळा विवेकने त्याचा निराकरण केला जातो.वृत्तींचे मिथ्याबोध होत असतो. शेवटी जेंव्हा मिथ्याबोध दृढ होतो तर सत्यज्ञानांने अज्ञानाचा क्षय होतो.आत्मा तर उपलब्ध होती पण आता ती अजून उपलब्ध होउन जाते. ह्याच बरोबर जो पर्यंत वृत्तिंचा जीवन चक्र आहे तेव्हा ह्यातील चाकांची धुर गति थांबून ठेवते. धुर निघून जाते,पण चाक पुढे जाउन पडतो.




#हिन्दी


ऋग्वेद१.३२.७


अ॒पाद॑ह॒स्तो अ॑पृतन्य॒दिंद्र॒मास्य॒ वज्र॒मधि॒ सानौ॑ जघान ।

वृष्णो॒ वध्रिः॑ प्रति॒मानं॒ बुभू॑षन्पुरु॒त्रा वृ॒त्रो अ॑शय॒द्व्य॑स्तः ॥


अनुवाद:


अपात् - फिर से।


अहस्तः - हाथ के बिना।


अपृतन्यत् - युद्ध करने की इच्छा ।


इंद्रम् - इन्द्र के।


अस्य - इसको।


वज्रम् - वज्र से।


अधि सानाै - कंधे पर।


आ जाघान - सामने से प्रहार करना।


वृष्णः - शक्तिशाली।


वध्रिः - नपुंसक।


प्रतिमानम् - समान।


बुभूषण् - हो जाने की इच्छा।


पुरूत्रा - बहुत से स्थानों में।


वृत्रः - वृत्र।


अशयत् - गिर जाना।


व्यस्तः - बिखरे अंगों वाला।


भावार्थ: इस मंत्र मे बताया गया है कि वृत्र के हाथ और पैर कट जाने के बाद भी वह लडने का प्रयास करता रहा।इन्द्रदेव ने उसके पर्वत के समान कंधों पर जोर से वार किया। इस प्रहार पर भी जुटा रहा। अंततः वह बारम्बार किये जा रहे प्रहारो से वह ध्वस्त होकर भूमि पर गिर पडा।


गूढार्थ: यहां देवताओं के साथ असुरों के संग्राम का वर्णन है। पुराणों में भी इसकी कथाएँ लिखी गयी हैं। कथानक के अनुसार वृत्रासुर को मारने के लिए दधीचि ऋषि की हड्डियों से बने वज्र से वह मारा गया। उसका आध्यात्मिक अर्थ होता है कि हमारी जो चित्त वृत्तियां हैं वही वृत्रासुर है और ये एक के बाद दूसरी उठती रहती है। विकारों की श्रृंखला बंद नहीं होती।जब तक मनोनाश नहीं होता तब तक मन अनेको योनियों में भटकता रहता है। बार बार विवेक से उसका निराकरण किया जाता है। वृत्तियों का मिथ्यातबोध किया जाता है। अंत में जब मिथ्यातबोध दृढ हो जाता है तो सत्यज्ञान के कारण अज्ञान का क्षय हो जाता है। आत्मा तो उपलब्ध थी ही अब उसकी उपलब्धि हो जाती है। इसी के साथ ही जब तक वृत्ति के जीव का जीवनचक्र है तो इसमें पहिये की धुरी ने गति को रोक दिया,धुरि निकल गई लेकिन जो पहिया है वह आगे जाकर गिर जायेगा।इतना ही होता है।



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