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Writer's pictureAnshul P

RV 1.32.9

Updated: Oct 7, 2020


IMBIBE BRAHMI VRITI IN YOURSELF TO GET RID OF BIRTH AND DEATH CYCLE.


Rig ved 1.32.9


Vritrasur is the symbol off our VRITI (Inner inclinations). We have to destroy our false inclinations and instead evolve Brahmi vritti (inclination). This means that we have to single mindedly destroy our potent VRITI and concentrate only in Parmatma. Whom so ever follows this is the superior of all in the three loks. Whoever follow this have actually imbibed the emotion of Brahma in their life. Only ignorant do not practice this as a result they are not free from cycle of birth and death. Brahma, Sanak, Sanat, etc devtas cannot stay away from Brahmi Vritti even for a second.


नी॒चाव॑या अभवद्वृ॒त्रपु॒त्रेंद्रो॑ अस्या॒ अव॒ वध॑र्जभार ।

उत्त॑रा॒ सूरध॑रः पु॒त्र आ॑सी॒द्दानुः॑ शये स॒हव॑त्सा॒ न धे॒नुः ॥


Translation :


नीचावयाः - Hands below.


अभवत् - Done.


वृत्रपुत्रा - Mother of Vritra.


इन्द्रः - Indra.


अस्याः अव - Below.


वधः - With weapons.


जभार - To strike.


उत्तरा - Upside.


सूः - Mother.


अधरः - Rear portion.


पुत्रः - 'Putra.


आसीत् - Situated.


दानुः - Demon.


शये - Lying below.


सहवत्सा - With calf.


धेनुःन - Like cow.


Explanation :To save her Son from Indra's furious strikes of Vajra, Vritra's Mother fell on top of him just like a cow covering its calf for protection. But Indra's blows did not stop. He now started attacking Vritra from down.


Deep meaning:- Vritrasur is the symbol off our VRITI (Inner inclinations). We have to destroy our false inclinations and instead evolve Brahmi vritti (inclination). This means that we have to single mindedly destroy our potent VRITI and concentrate only in Parmatma. Whom so ever follows this is the superior of all in the three loks. Whoever follow this have actually imbibed the emotion of Brahma in their life. Only ignorant do not practice this as a result they are not free from cycle of birth and death. Brahma, Sanak, Sanat, etc devtas cannot stay away from Brahmi vritti even for a second.


#मराठी


ऋग्वेद१.३२.९


नी॒चाव॑या अभवद्वृ॒त्रपु॒त्रेंद्रो॑ अस्या॒ अव॒ वध॑र्जभार ।

उत्त॑रा॒ सूरध॑रः पु॒त्र आ॑सी॒द्दानुः॑ शये स॒हव॑त्सा॒ न धे॒नुः ॥


भाषांतर :


नीचावया - खालील हात.


अभवत् - झाले.


वृत्रपुत्रा - वृत्राची माता.


इन्द्रः - इन्द्रांने.


अस्याः अव - त्यात्या खाली.


वधः - शस्त्रांचे.


जभार - प्रहार करणें.


उत्तरा - वर.


सूः - माता.


अधरः - अधोभाग.


पुत्रः - पुत्र.


आसीत् - स्थित.


दानुः - दानवी.


शये - पडलेली.


सहवत्सा - वासरू बरोबर.


धेनुःन - गाई सारखे.


भावार्थ:आपल्या पुत्राला इन्द्राचे वज्र प्रहाराने वाचवण्यासाठी वृत्राची आई त्याचावर अश्या प्रकारे झोपली जशी एक गाई आपल्या कवेत घेउन त्याचे रक्षण करते. परंतु इन्द्रांचे प्रहार थांबले नाहीं आणि ते खाली बाजूस प्रहार करत राहिले.


गूढार्थ: वृत्रासुर आमची वृत्तींचा प्रतीक आहे.आम्हाला आमची मिथ्या वृत्तींच्या नाश करून आपल्या मध्ये ब्रह्ममी वृत्ती उत्पन्न केली पाहिजे. अर्थात एकाग्रतेने आपल्या जीवनाच्या समस्त विकारांना त्याग करून केवल परमात्माचे चिंतन केले पाहिजे. जे अश्या प्रकाराचे जीवन पद्धती मधे रमण करतात ते तीनही लोकात श्रेष्ठ आहेत. जे ह्याची ओळख करून आपल्या जीवनात आत्मसात करत आहेत ते श्रेष्ठ ब्रह्म भावला प्राप्त झाले आहेत. अज्ञानी लोक प्रयत्नच करत नाहीत आणि जन्म मरणाची श्रृंखला तोडणे त्याना अशक्य असते .ब्रह्मादि, सनकादि देवता ह्या वृत्ती विना एकही क्षण राहू शकत नाही.



#हिन्दी

ऋग्वेद१.३२.९


नी॒चाव॑या अभवद्वृ॒त्रपु॒त्रेंद्रो॑ अस्या॒ अव॒ वध॑र्जभार ।

उत्त॑रा॒ सूरध॑रः पु॒त्र आ॑सी॒द्दानुः॑ शये स॒हव॑त्सा॒ न धे॒नुः ॥व


अनुवाद:


नीचावया - क्षीण होती शक्ती।


वृत्रपुत्रा - वृत्र की माता।


इन्द्रः - इन्द्र ने।


अस्याः अव - उसके नीचे।


वधः - शस्त्र का।


जभार - प्रहार करना।


उत्तरा - ऊपर थी।


सूः -माता।


अधरः - अधोभाग में।


पुत्रः - पुत्र।


आसीत् - स्थित है।


दानुः - दानवी।


शये - मृत पडी है।


सहवत्सा - बछडे के साथ।


धेनुःन - गाय की तरह।


भावाँर्थ:अपने पुत्र को इन्द्र के वज्र प्रहारो से बचाने के लिए वृत्र की माता उसके ऊपर उस तरह लेट गई जैसे गाय अपने बछडे के बचाव में उस पर सो जाती है। फिर भी इन्द्रदेव ने अपने प्रहार रोके नहीं और नीचे की तरफ प्रहार करते रहे।


गूढार्थ: वृत्रासुर हमारी वृत्तियों का प्रतीक है। हमें अपनी मिथ्या वृत्तियों का विनाश करके अपने भीतर ब्रह्ममी वृत्ति उत्पन्न करनी होगी अर्थात हमें एकाग्रता के साथ अपने जीवन के समस्त विकारों का त्याग करके केवल परमात्मा में मन लगाना होगा। जो इस वृति को पहचानकर अपने जीवन में अपनाते हैं, वे तीनो लोको में श्रेष्ठ हैं। जो इसे पहचान कर अपने जीवन में उतार चुके हैं वे श्रेष्ठ ब्रह्म भाव को प्राप्त कर चुके हैं। जो नहीं कर पाये वे अज्ञानी हैं और जन्म मरण की श्रृंखला को तोड नही पाये। ब्रह्मादी सनकादि देवता इस ब्रह्ममी वृत्ति के बिना एक पल भी नही रहते।



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