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RV 1.32.10

Updated: Oct 8, 2020


YOUR BODY IS NOT YOUR IDENTITY, YOU ARE BRAHM.


Rig Ved 1.32.10


Our internal conflicts lie passive for a long time. We have to make a consistent effort to destroy the sleeping vritti at their roots and dedicate ourselves to Parmatma. Here, Our inert body denotes our body which actually is not us. We are not only a body but in reality we are Equal, Peaceful sadchidanand incarnate Brahm. He is without any vices,shapeless, Pure and Indestructible. He is Sorrowless, A Shadow without alternate and Wide Brahm. So we are not just a false body, This is what the intelligent people say.


अति॑ष्ठंतीनामनिवेश॒नानां॒ काष्ठा॑नां॒ मध्ये॒ निहि॑तं॒ शरी॑रं ।

वृ॒त्रस्य॑ नि॒ण्यं वि च॑रं॒त्यापो॑ दी॒र्घं तम॒ आश॑य॒दिंद्र॑शत्रुः ॥


Translation :


अतिष्ठन्तिनाम् - Unstoppable.



अनिवेशनानाम् - Never rests.


काष्ठानाम् - In water.


मध्ये - Centre.


निहितम् - Fallen.


वृत्रस्य - Vritra.


निन्यम् - Without name.


शरीरम् - Of body.


अापः वि चरन्ति - Water all around.


इन्द्रशत्रुः - Vritra.


दीर्घम् तमः - In deep darkness.


आ अशयत् - Sleeps.


Explanation : This mantra says that the Water is Unstoppable and is Constantly floating. It is amidst them that unknown Vritra's speedless body is lying down. He has gone in long and deep sleep and water is floating above him.


Deep meaning: Our internal conflicts lie passive for a long time. We have to make a consistent effort to destroy the sleeping vritti at their roots and dedicate ourselves to Parmatma. Here, Our inert body denotes our body which actually is not us. We are not only a body but in reality we are Equal, Peaceful sadchidanand incarnate Brahm. He is without any vices,shapeless, Pure and Indestructible. He is Sorrowless, A Shadow without alternate and Wide Brahm. So we are not just a false body, This is what the intelligent people say.


📸 Credit - Kamlesh Pradhan sir


#मराठी


ऋग्वेद१.३२.१०


अति॑ष्ठंतीनामनिवेश॒नानां॒ काष्ठा॑नां॒ मध्ये॒ निहि॑तं॒ शरी॑रं ।

वृ॒त्रस्य॑ नि॒ण्यं वि च॑रं॒त्यापो॑ दी॒र्घं तम॒ आश॑य॒दिंद्र॑शत्रुः ॥


भाषांतर :


अतिष्ठन्तिनाम् - कधी न थांबणारा.



अनिवेशनानाम् - कधी आराम न करणारा.


काष्ठानाम् - पाण्याचे.


मध्ये - मधे.


निहितम् - पडलेला.


वृत्रस्य - वृत्राचे.


निन्यम् - नामरहित.


शरीरम् - शरीराचे.


अापः वि चरन्ति - प्रत्येक जागी पाणी वाहणे.


इन्द्रशत्रुः - वृत्र.


दीर्घम् तमः - लांब समयी अंधकार पसरण्यास.


आ अशयत् - झोपून राहणे.


भावार्थ:ह्या मंत्रात म्हटलेले की जल न थांबता,न थकता अविरत प्रवाहित असते. त्यात वृत्राचे शरीर गतिहीन होउन पडून आहे. तो चिर निद्रा घेत आहे व पाणी त्याचा वरून वाहत आहे.


गूढार्थ:आमचे आंतरिक विकार दीर्घ काळ आमच्यामधे व्याप्त राहतात.आम्हाला प्रयत्न पूर्वक त्याना सुप्तावस्थेतून काढून ह्या वृत्तींना समूळ नष्ट केले पाहिजे आणि स्वतःला परमात्माना समर्पित केले पाहिजे.इथे निष्क्रिय शरीराचे तात्पर्य असत्यरूप देह आहे.देहाला सत्य मानून " मी देह आहे" हे चूकीचे तथ्य आहे किंबुहुना आपण सम शान्त आणि सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म आहोत. तो निर्विकार निराकार निर्मळ आणि अविनाशी ब्रह्म आहे.तो दुःखहीन आभासहीन विकल्पहीन आणि व्यापक आहे. वास्तविक आपण असत्यस्वरूप देह नसतो ह्यास बुधिजन ज्ञान असे म्हणत असतात.




#हिन्दी


ऋग्वेद१.३२.१०


अति॑ष्ठंतीनामनिवेश॒नानां॒ काष्ठा॑नां॒ मध्ये॒ निहि॑तं॒ शरी॑रं ।

वृ॒त्रस्य॑ नि॒ण्यं वि च॑रं॒त्यापो॑ दी॒र्घं तम॒ आश॑य॒दिंद्र॑शत्रुः ॥


अनुवाद:


अतिष्ठन्तिनाम् - कभी न रूकनेवाले।


अनिवेशनानाम् - कभी आराम न करनेवाले।


काष्ठानाम् - जलों के।


मध्ये - बीच।


निहितम् - पडे हुए।


वृत्रस्य - वृत्र के।


निन्यम् - नाम रहित।


शरीरम् - शरीर के।


अापः वि चरन्ति - हर तरफ जल बहना।


इन्द्रशत्रुः - वृत्र।


दीर्घम् तमः - गहरे अंधकार के।


आ अशयत् - सो जाना।


भावार्थ:इस मंत्र में कहा गया है कि जल मेघ रूप में बिना रूके और थके प्रवाहित होते रहते हैं। उन्हीं के मध्य वृत्र का अनाम शरीर गतिहीन होकर पडा रहता है। वह लंबी नींद सो रहा है और जल उसके ऊपर से बहा जा रहा है।


गूढार्थ: हमारे आंतरिक विकार दीर्घ काल से हमारे भीतर व्याप्त रहते हैं।हमें प्रयत्न पूर्वक उन सुप्तावस्था को प्राप्त वृत्तियों को समूल नष्ट करके स्वयं को परमात्मा में समर्पित करना होगा।यहां निष्क्रिय शरीर से तात्पर्य असत्यरूप देह से है। देह को ही सत्य मानते हैं और " मैं देह हूं" इसको ही सत्य समझना गलत है बल्कि हम सम शान्त और सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म ही हैं।वह निर्विकार निराकार निर्मल और अविनाशी है। वह दुःखहीन आभासहीन विकल्पहीन और व्यापक ब्रह्म है। हम वास्तव में असत्यस्वरुप मात्र देह नहीं हैं,इसे बुधजन ज्ञान कहते हैं।


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