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RV 1.33.12

Updated: Nov 6, 2020


Rig Ved 1.33.12


As per destiny whatever Karma's the jeev performs until they are finished, it swims in the Ocean of life(भवसागर पार करना). All his doubts are cleared on attaining Knowledge. Whatever the pre destined(प्रारब्ध) Karma's may be, they too are destroyed. When Parmatma bestows his grace(कृपा) on jeev then Atma and Parmatma become one, then all the barriers of Sanskaras(संस्कार) in mind, Consciousness and Praan too disappear and one discovers one's true self.


न्या॑विध्यदिली॒बिश॑स्य दृ॒ळ्हा वि शृं॒गिण॑मभिन॒च्छुष्ण॒मिंद्रः॑ ।

याव॒त्तरो॑ मघव॒न्याव॒दोजो॒ वज्रे॑ण॒ शत्रु॑मवधीः पृत॒न्युं ॥


Translation :


इलिविशस्य - Vritra sleeping inside a cave .


दृळहा - The water stopped by the Asurs.


इन्द्रः - Of Indra.


न्यविध्यत् - Attacked in all manners.


श्रृगिंणम् - Weapons with horns.


शुष्णम् - The one's exploiting the earth.


वि अभिनत् - Struck in different manners.


मघवन - Wealthy Indra!


यावत् तरः - With more sharpness.


यावत् ओजः - With more strength.


पृतन्युम् - Eager for war.


शत्रुम् - For enemies.


वज्रेण - With Vajra.


अवधीः - Killed.


Explanation : This mantra says that Indra completely destroyed the army which was hiding in a cave. He attacked Vritra, the one who exploited and harassed the people on Earth, in all the possible ways. Oh wealthy Indra! You destroyed Vritra, the one always eager for war, with full force and strength.


Deep meaning: As per destiny whatever Karma's the jeev performs until they are finished, it swims in the Ocean of life(भवसागर पार करना). All his doubts are cleared on attaining Knowledge. Whatever the pre destined(प्रारब्ध) Karma's may be, they too are destroyed. When Parmatma bestows his grace(कृपा) on jeev then Atma and Parmatma become one, then all the barriers of Sanskaras(संस्कार) in mind, Consciousness and Praan too disappear and one discovers one's true self.



#मराठी


ऋग्वेद १.३३.१२


न्या॑विध्यदिली॒बिश॑स्य दृ॒ळ्हा वि शृं॒गिण॑मभिन॒च्छुष्ण॒मिंद्रः॑ ।

याव॒त्तरो॑ मघव॒न्याव॒दोजो॒ वज्रे॑ण॒ शत्रु॑मवधीः पृत॒न्युं ॥


भाषांतर :


इलिविशस्य - पृथ्वीवर गुफेत लपून झोपलेल्या वत्र.


दृळहा - असुराने रोखलेले पाणी.


इन्द्रः - इन्द्रांने.


न्यविध्यत् - अनेक प्रकारे विद्ध करणे.


श्रृगिंणम् - शिंगाने युक्त आयुध.


शुष्णम् - संसाराचे शोषण करणारा वृत्र.


वि अभिनत् - अनेक प्रकाराने मारले.


मघवन - धनवान इन्द्र!


यावत् तरः - जितक्या फूर्तिने.


यावत् ओजः - जितक्या बळाने.


पृतन्युम् - युद्ध करण्यास उत्सुक.


शत्रुम् - शत्रुंना.


वज्रेण - वज्राने.


अवधीः - मारणे.


भावार्थ: ह्या मंत्रात म्हटलेले आहे की इन्द्रांने पृथ्वीवरील कोणत्या एक गुहेत लपून बसलेल्या वृत्राचे सैन्य दलाला संपूर्ण पद्धती ने नष्ट करून टाकले. त्या नंतर त्याने शिंग युक्त आयुधाने युक्त त्या शोषक आणि त्रास देणाऱ्या वृत्रासुराला अनेक पद्धतीने प्रताडित केले.हे धनवान इन्द्र! आपण त्या युद्धाचे उत्सुक वृत्राला संपूर्ण वेग आणि बळाने वज्राच्या प्रहाराने मारून टाकले.


गूढार्थ: प्रारब्ध जनित जे जीवाचा कर्म असतो तो संस्कार पर्यंत अथवा जे पर्यंत त्याची समाप्ति होत असणार, ते तेंव्हा पर्यंत ह्या संसाराचे भवसागरात भटकत राहतो.जेंव्हा ज्ञान प्राप्ति होते त्याचे सर्व भ्रम मिटतात तेंव्हा प्रारब्धाचे संचित कर्म आणि इतर कर्मांची समाप्ती होत असते.परमात्माच्या ऐक्या द्वारे कर्म, मन आणि प्राणांचे संस्कारांचा बाध करून टाकतो तेंव्हा व्यक्तिस सहज स्वरूपाची प्राप्ति होते.




#हिन्दी


ऋग्वेद १.३३.१२


न्या॑विध्यदिली॒बिश॑स्य दृ॒ळ्हा वि शृं॒गिण॑मभिन॒च्छुष्ण॒मिंद्रः॑ ।

याव॒त्तरो॑ मघव॒न्याव॒दोजो॒ वज्रे॑ण॒ शत्रु॑मवधीः पृत॒न्युं ॥


अनुवाद:


इलिविशस्य - धरती के बिल में सगोए हुए वृत्र को।


दृळहा - असुरों द्वारा रोके जल।


इन्द्रः - इन्द्र ने।


न्यविध्यत् - सभी तरह से विद्ध कर दिया।


श्रृगिंणम् - सींग वाले आयुधों से युक्त।


शुष्णम् - संसार का शोषण करनेवाला वृत्र।


वि अभिनत् - अलग अलग तरह से मारा।


मघवन - धनवान इन्द्रे!


यावत् तरः - जितनी तेजी से।


यावत् ओजः - जितने बल से।


पृतन्युम् - युद्ध करने के इच्छुक।


शत्रुम् - शत्रु को।


वज्रेण - वज्र से।


अवधीः - मारा।ज


भावार्थ: इस मंत्र में कहा गया है कि इन्द्र ने धरती के भीतर गुफा में छिपे हुए वृत्र की सेना को पूरी तरह क्षत विक्षत कर ड़ाला। उसके बाद सींगवाले हथियारों से युक्त उस शोषक और दुख पहुंचाने वाले वृत्र को अनेक तरह से प्रताडित किया। हे धनवान इंद्र!आपने उस युद्ध के इच्छुक वृत्र को समस्त वेग और बल से वज्र द्वारा मार गिराया।


गूढार्थ: प्रारब्ध जनित जो जीव का कर्म हैं वह संस्कार पर्यंत या जब तक उसकी समाप्ति नही होती है वह तब तक इस संसार के भव सागर के भवाटवी में भटकता रहता है। जब ज्ञान के द्वारा इसका भ्रम दूर होता है तब प्रारब्ध में जितने भी संचित कर्म हैं और तमाम कर्म हैं, उसकी समाप्ति हो जाती है। परमात्मा के द्वारा जब जीव पर कृपा होती है तब आत्मा और परमात्मा की एकता के द्वारा कर्म और कर्म के संस्कारों का, मन और मन के संस्कारों का, प्राण और उसके संस्कारों का जब बाध कर लेता है तब उसके सहज स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है।



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