SURRENDER YOURSELF TO PARMATMA AND BECOME SECURE.
Rig Ved 1.33.15
Here Indra means Parmatma and his Vajra stands for Maya. This Maya is the Creator of this Universe. The axis stand for inner inclinations. The spikes denote our वृति (inner inclinations), who are like Vritrasur. These three types of Vritti( Raj, Satva and Tam) are the reason for our happiness and sorrow. Here Parmatma has been upsurged. When you upsurge this as per your will then all his qualities too shall come with it. Once the Jeev Surrenders to Parmatma, all his difficulties go and he becomes secure.
इंद्रो॑ या॒तोऽव॑सितस्य॒ राजा॒ शम॑स्य च शृं॒गिणो॒ वज्र॑बाहुः ।
सेदु॒ राजा॑ क्षयति चर्षणी॒नाम॒रान्न ने॒मिः परि॒ ता ब॑भूव ॥
Translation:-
इन्द्रः - Indradev.
यातः - Movable.
अवसितस्य - Immovable.
राजा - King.
शमस्य च - Peaceful.
श्रृगिणः - Horns.
वज्रबाहुः - One carrying Vajra.
सः इत ऊ- That.
राजा - King.
क्षयति - To stay.
चर्षणीनाम् - For humans.
अरान् न - Axis and spindle of a chariot.
परि बूभव - Spread.
ता - Theirs.
Explanation:This mantra says that Hiranyastup rishi describes the Valour of Vajra wielding Indra. Indra destroyed the demon named AHI and thus was able to allow the rivers to flow. His glory then spread all over the world. The meaning of this mantra is that after destroying Vritrasur Indra became the owner of all movable, immovable things,animals with and without horns. He then carried everyone and everything into his shelter like the spikes inside the wheel's axis.
Deep meaning:- Here Indra means Parmatma and his Vajra stands for Maya. This Maya is the Creator of this Universe. The axis stand for inner inclinations. The spikes denote our वृति (Inner inclinations), who are like Vritrasur. These three types of Vritti( Raj, Satva and Tam) are the reason for our happiness and sorrow. Here Parmatma has been upsurged. When you upsurge this as per your will then all his qualities too shall come with it. Once the Jeev Surrenders to Parmatma, all his difficulties go and he becomes secure.
#मराठी
इंद्रो॑ या॒तोऽव॑सितस्य॒ राजा॒ शम॑स्य च शृं॒गिणो॒ वज्र॑बाहुः ।
सेदु॒ राजा॑ क्षयति चर्षणी॒नाम॒रान्न ने॒मिः परि॒ ता ब॑भूव ॥
भाषांतर :
इन्द्रः - इन्द्रदेव!
यातः - चालणारे किंवा जंगम.
अवसितस्य - स्थिर राहणारे किंवा स्थावर.
राजा - राजा.
शमस्य च - शांत.
श्रगिृणः - शींगयुक्त.
वज्रबाहुः - वज्रधारक.
सः इत ऊ -: तेच.
राजा - राजा.
क्षयति - निवास करणे.
'
चर्षणीवाम् - मनुष्यास.
अरान् न - रथातली धुरी मधिल कील.
परि बूभव - व्याप्त असणे.
ता - त्यांचे.
भावार्थ: ह्या मंत्रात म्हटले आहे की हिरण्यस्तूप ऋषी इथे वज्रधारी इन्द्रदेवांच्या पराक्रमाचे वर्णन करत आहेत.इन्द्राने अहि नावाच्या राक्षसाचा वध करून नद्या तिल पाणी प्रवाहमान केले.अंततः ते समस्त संसारात व्याप्त झाले. ह्याचे अभिपाय आहे की वृत्रासुराला मारून इन्द्र सर्व स्थावर, जंगम, शींगयुक्त आणि शींगविहीन पशुंचे स्वामी झाल्यावर.त्याने सर्वाना चक्राच्या अक्षाप्रमाणे आसरा दिला.
गूढार्थ: इथे इन्द्राला परमात्माची संज्ञा दिल्ली आहे आणि वज्राला मायाची संज्ञा दिली आहे.माया द्वारे समस्त संसाराची रचना केली जाते. अक्ष म्हणजे वृत्ती, तोच वृत्रासुर. इथे तीनही प्रकाराचे गुण( रज,तम आणि सत्) मधे सुख आणि दुख निहित आहेत.इथे परमात्माचे अभ्युत्थान आहे आणि परमात्माचा अध्यारोप केलेले आहे.जेंव्हा इच्छेचे अध्यारोप केलेले आहे तेंव्हा त्याच्या बरोबर त्याचे संपूर्ण गुण आणि काळाची पण आवृती झाली.परमात्मा द्वारे जीवाची शरणागती झाली तर तो सर्व आपत्ती ने सुरक्षित राहिल.
# हिन्दी
ऋग्वेद १.३२.१४
इंद्रो॑ या॒तोऽव॑सितस्य॒ राजा॒ शम॑स्य च शृं॒गिणो॒ वज्र॑बाहुः ।
सेदु॒ राजा॑ क्षयति चर्षणी॒नाम॒रान्न ने॒मिः परि॒ ता ब॑भूव ॥
अनुवाद:
इन्द्रः - इन्द्रदेव!
यातः - चलनेवाला या जंगम।
अवसितस्य - स्थिर रहनेवाला या स्थावर।
राजा - राजा।
शमस्य च - शांत।
श्रगिृणः - सींगवाले।
वज्रबाहुः - वज्रधारी।
सः इत ऊ - वही।
राजा - राजा।
क्षयति - निवास तरना।
चर्षणीवाम् - मनुष्यो के।
अरान् न - रथ के धुरे में लगी हुई कीलें।
परि बूभव - व्याप्त करना।
ता - उनके।
भावार्थ: इस मंत्र में कहा गया है कि अपने हाथ में वज्र धारण करनेवाले इन्द्रदेव के पराक्रमों का वर्णन यहां हिरण्यस्तूप मुनि दे रहे हैं। इन्द्र ने अहिः नामक राक्षस को मारकर नदियों के जल को प्रवाहमान बनाया और अंततः समस्त संसार में व्याप्त हो गए। इस मंत्र का अभिप्राय है कि वृत्र को मारने बाद इन्द्र स्थावर, जंगम, सींगयुक्त और सींगरहित सभी के स्वामी हैं, इसी तरह से उन्होने सबको धारण किया जैसे पहिये की अरि नेमि में स्थित रहती है।
गूढार्थ: यहां पर इन्द्र को परमात्मा की संज्ञा दी गई है। और इन्द्र के वज्र को माया की संज्ञा दी गई है। इस माया के द्वारा संपूर्ण जगत की रचना होती है। अरि या अरे का मतलब धुरि।धुरि के आगे जो वृत्तियां हैं वो वृत्रासुर हैं। इन तीनो प्रकार ( रज,तम और सत्) में सुख और दुख निहित हैं। इसमे परमात्मा का अभ्युत्थान है और इसमें परमात्मा का अध्यारोप किया गया है। जब इच्छा का अध्यारोप कर दिया गया तब उसके साथ पूरा का पूरा गुण है, काल है, उनकी आवृत्ति हो गई। परमात्मा के द्वारा जीव की शरणागति हो गई तब वह सारी आपत्ति से सुरक्षित हो जाता है।
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