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Writer's pictureAnshul P

RV 1.33.6

Updated: Oct 31, 2020


Rig Ved 1.33. 6


Here Indra denotes the Supreme Praan which is spread wide all over the Universe. When this Praan is attacked then it is disastrous since that same Praan exists in each of the living being. व्यष्ठि(Individual Being) and समष्टि (Supreme Being) are one. Those who achieve this knowledge never think in the extremes since they dwell and play in their Atma irrespective of any influences. This is the meaning of this mantra. Praan is the Supreme Tatva. Those who achieve this knowledge, experience that all the ignorance and doubts have vanished.


अयु॑युत्सन्ननव॒द्यस्य॒ सेना॒मया॑तयंत क्षि॒तयो॒ नव॑ग्वाः ।

वृ॒षा॒युधो॒ न वध्र॑यो॒ निर॑ष्टाः प्र॒वद्भि॒रिंद्रा॑च्चि॒तयं॑त आयन् ॥


Explanation:


अयुयुत्सन् - Wish to wage a war.


अनवद्यस्य - Without fault.


सेनाम् - With army.


अयतयन्तः - For war.


क्षितयः - Humans.


नवग्वाः - With good character.


वृषायुदधः - To fight war in a manly way.


वध्रयःन - To run away from war as impotent .


निरष्टाः - Insulted.


प्रवाद्भीः - In easier way.


इंद्रात् - Near Indra.


चितयन्तः - Think about their weaknesses.


आयन् - To run away.


Translation; This mantra says that the enemies struck Indra's innocent army with their full might, but were defeated. Their condition resembled of weak and impotent warriors like the one which eventually happens when the powerful one strikes. Accepting their weakness, they ran away.


Deep meaning:- Here Indra denotes the Supreme Praan which is spread wide all over the Universe. When this Praan is attacked then it is disastrous since that same Praan exists in each of the living being. व्यष्ठि(Individual Being) and समष्टि(Supreme Being) are one. Those who achieve this knowledge never think in the extremes since they dwell and play in their Atma irrespective of any influences. This is the meaning of this mantra. Praan is the Supreme Tatva. Those who achieve this knowledge, experience that all the ignorance and doubts have vanished.



#मराठी


ऋग्वेद १.३३.६


अयु॑युत्सन्ननव॒द्यस्य॒ सेना॒मया॑तयंत क्षि॒तयो॒ नव॑ग्वाः ।

वृ॒षा॒युधो॒ न वध्र॑यो॒ निर॑ष्टाः प्र॒वद्भि॒रिंद्रा॑च्चि॒तयं॑त आयन् ॥


भाषांतर:


अयुयुत्सन् - युद्धाची इच्छा.


अनवद्यस्य - दोषहीन.


सेनाम् - सेना बरोबर.


अयातयन्तः - युद्धा साठी.


क्षितयः - मनुष्याने.


नवग्वाः - उत्तम चरित्र युक्त.


वृषायुद्धः - पुंस्त्व युक्त बरोबर युद्ध.


वध्रयःन - नपुंसक सारखे पळून जाणे.


निरष्टाः - अपमानित.


प्रवद्भीः - सरळ मार्गाने


इंद्रात् - इन्द्राय जवळ.


चितयन्तः - स्वतः ची निर्बळते वर विचार.


आयन् - लांब पळणे.


भावार्थ:ह्या मंत्रात म्हटलेले आहे की शत्रूंनी इंद्राच्या निर्दोष सेनेवर आपली संपूर्ण शक्ति लावून आक्रमण केले,परंतू पराजित झाले. त्यांची स्थिति नपुंसका सारखी झाली जशी एक शक्तिशालीच्या प्रहाराने होते. ते आपली निर्बलता स्वीकार करून पळून गेले.


गूढार्थ: इथे इंद्राचे अर्थ म्हणजे प्राण आहे जे समस्त ब्रह्मांडात प्राण रूपात व्याप्त आहे. प्राणावर प्रहार झाल्यास प्राण जरी उठले तर संकट निर्माण होइल.कारण सर्वांमध्ये जे जीवन आहे तो प्राणच आहे.व्यष्ठि व समष्ठि एक प्राण असतात म्हणून समस्त संसारच त्यामध्ये व्याप्त आहे. ज्या व्यक्तिस हा ज्ञान होउन जातो तो कधी अतिवादी बनणार नाही.कारण तो सर्वदा आपल्या आत्म्यामधे रमण करतो,क्रिडा करतो.हा मंत्राचा सार्थक ज्ञान आहे.प्राणाला महान स्वीकार केला जातो. ह्या दृष्टी ने जेंव्हा परम प्रकाश रूपी परमार्थाचा ज्ञान होते तेंव्हा समस्त अंधार आणि भ्रम समाप्त होतात.



#हिन्दी

ऋग्वेद १.३३.६


अयु॑युत्सन्ननव॒द्यस्य॒ सेना॒मया॑तयंत क्षि॒तयो॒ नव॑ग्वाः ।

वृ॒षा॒युधो॒ न वध्र॑यो॒ निर॑ष्टाः प्र॒वद्भि॒रिंद्रा॑च्चि॒तयं॑त आयन् ॥


अनुवाद:


अयुयुत्सन् - युद्ध की इच्छा।


अनवद्यस्य -दोषहीन।


सेनाम् - सेना के साथ।


अयतयन्तः - युध्द के लिए।


क्षितयः - मनुष्यो ने।


नवग्वाः - उत्तम चरित्र वाले।


वृषायुद्धः -पुंस्त्व युक्त के साथ युद्ध।


वध्रयःन -नपुंसक की तरह भाग जाना।


निरष्टाः - अपमानित।


प्रवाद्भीः - आसान मार्ग से।


इंद्रात् - इन्द्र के पास।


चितयन्तः - अपनी निर्बलता का विचार।


आयन् - दूर भागना।


भावार्थ:इस मंत्र में कहा गया है कि शत्रुओं ने इंद्र की निर्दोष सेना पर अपनी पूरी शक्ति लगाकर आक्रमण किया परंतु पराजित हो गये। उनकी स्थिति उस नपुंसक की तरह हो गई जिसने एक ताकतवर पर प्रहार करने से होती है। अपनी निर्बलता को स्वीकार करते हुए वे भाग खडे हुए।


गूढार्थ: यहां इन्द्र का अर्थ लिया जायेगा प्राण से, जो समस्त ब्रह्मांड में प्राण के रूप में व्याप्त हैं। प्राण पर प्रहार होने से प्राण उठे तो संकट है सबमें जो जीवन है वो प्राण है। व्यष्ठि और समष्टि प्राण एक होते हैं तब समस्त संसार ही इसमें व्याप्त है,।यह ज्ञान जिसको हो जाता है वह कभी अतिवादी नहीं बनता। क्योंकि वह अपनी आत्मा में ही रमण करता है और क्रीड़ा करता है। उसपर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं होता,यही इस मंत्र का सार्थक ज्ञान है। प्राण ही महान माना गया है।इस प्रकार से जब परम प्रकाशरूपी परमार्थ का ज्ञान हो जाता है तब समस्त अंधकार और भ्रम मिट जाता है।



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