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RV 1.33.7

Updated: Nov 1, 2020


Rig Ved 1.33.7


Our inner inclinations(चित्त की वृतियां) are Vritrasur. When these inclinations rise, they keep us distracted. As a result we become restless and therefore are never satisfied. This is the reason for the Jeev to feel sorrowful. When we get over these inclinations or we understand this, then the PRAAN inside us removes away all the inclinations. This PRAAN never sleeps. Only our mind and intelligence sleep. Parmatma is present during the course of our sleep when there is actually no activity and movement. Only thing that remains is Anand(Blissfulness). The seer remains with this Anand. Therefore when we get up from our sleep we experience satisfaction. This is due to Parmatma being present there and all our inclinations have been destroyed. We experience happiness.


त्वमे॒तान्रु॑द॒तो जक्ष॑त॒श्चायो॑धयो॒ रज॑स इंद्र पा॒रे ।

अवा॑दहो दि॒व आ दस्यु॑मु॒च्चा प्र सु॑न्व॒तः स्तु॑व॒तः शंस॑मावः ॥


अनुवाद:

इन्द्र त्वम् - Indradev! You.


रूदतः च - And crying.


जक्षतः - Eating.


एतान् - With them.


रजसः पारे - Beyond space.


अयोधयः - Waging war.


दस्युम् - Like dacoits.


दिवः आ - Beyond Dhyulok.


उच्चा - In a better way.


अवादहः - To burn.


सुन्वतः - The one's preparing Somras.


स्तुवतः - The one's singing praises.


शंसम् - Praised.


प्र आवः - To protect in every way.


Explanation:- This mantra says that some of Vritra's accomplices were making fun of Indradev and some were crying in fright. Indra fought the war beyond the sky. He pulled out Vritra from swarg and destroyed him along with his family. This way he protected the one's preparing Somras and the ones singing his praises.


Deep meaning: Our inner inclinations(चित्त की वृतियां) are Vritrasur. When these inclinations rise, they keep us distracted. As a result we become restless and therefore are never satisfied. This is the reason for the Jeev to feel sorrowful. When we get over these inclinations or we understand this, then the PRAAN inside us removes away all the inclinations. This PRAAN never sleeps. Only our mind and intelligence sleep. Parmatma is present during the course of our sleep when there is actually no activity and movement. Only thing that remains is Anand(Blissfulness). The seer remains with this Anand. Therefore when we get up from our sleep we experience satisfaction. This is due to Parmatma being present there and all our inclinations have been destroyed. We experience happiness.



#मराठी


ऋग्वेद १.३३.७


त्वमे॒तान्रु॑द॒तो जक्ष॑त॒श्चायो॑धयो॒ रज॑स इंद्र पा॒रे ।

अवा॑दहो दि॒व आ दस्यु॑मु॒च्चा प्र सु॑न्व॒तः स्तु॑व॒तः शंस॑मावः ॥


भाषांतर :


इन्द्र त्वम् - हे इन्द्र ! आपण. Gov


रूदतः च - रडणारे.


जक्षतः - भक्षण करणारे.


एतान् - ह्यांचा बरोबर.


रजसः पारे - अंतरिक्षाचा पलीकडे.


अयोधयः - युद्ध करणे.


दस्युम् - दस्यु.


दिवः आ - द्युलोकाने घेउन.


उच्चा - चांगल्या पद्धती ने.


अवादहः - पेटवून.


सुन्वतः - सोमाभिषव करणारे.


स्तुवतः - स्तुती करणारे.


शंसम् - स्तुती केली.


प्र आवः - सर्व पद्धति ने रक्षा.


भावार्थ - ह्या मंत्रात म्हटलेले आहे की वृत्राचे काही अनुचर इंद्रदेवांची थट्टा करीत होते आणि काही भीतीने रडत होते. इन्द्रांने आकाशाचा पलीकडे पण युद्ध केले. त्यानी वृत्राने सारख्या दरोडेखोराला स्वर्गातून आणून, त्याला कुटुंबासह नष्ट केले. ह्या पद्धति ने इंद्राने सोमरस बनविणार्‍यांचे व स्तुती करणाऱ्यांचे रक्षण केले.


गूढार्थ: आमच्या चित्ताची वृत्ति म्हणजे वृत्रासुर. ही वृत्ति पुढे विक्षिप्तता घेउन येतात. जेव्हा अशांती आणि असंतोष येतो तेंव्हा जीव दुखी होतो. जेंव्हा ह्या वृत्ति पासून मुक्तता प्राप्त होते किंवा आम्ही ह्याना समजून घेतो तेंव्हा प्राण स्वतः ह्या वृत्तीना नष्ट करतो. प्राण कधी झोपत नसतो. चित्त झोपून जाते, मन आणि बुद्धि झोपतात.तेंव्हा सुषुप्ति मध्ये परमात्मा तर राहतातच, पण तिकडे काही कार्य व क्रिया होत नाही,राहून जातो केवल आनंद.त्या ठिकाणी परमात्मा असल्यामुळे समस्त वृत्तिंचा नाश होतो आणि आम्ही आनंद अनुभव करतो.



#हिन्दी


ऋग्वेद १.३३.७


त्वमे॒तान्रु॑द॒तो जक्ष॑त॒श्चायो॑धयो॒ रज॑स इंद्र पा॒रे ।

अवा॑दहो दि॒व आ दस्यु॑मु॒च्चा प्र सु॑न्व॒तः स्तु॑व॒तः शंस॑मावः ॥


अनुवाद :


इन्द्र त्वम् - हे इन्द्र ! आपने।


रूदतः च - रोनेवाले और।


जक्षतः - भक्षण करनेवाले।


एतान् - इनके साथ।


रजसः पारे - अंतरिक्ष के पार।


अयोधयः - युद्ध करना।


दस्युम् - डाकू को।


दिवः आ - द्युलोक से लाकर।


उच्चा - अच्छे ढंग से।


अवादहः - जलाना।


सुन्वतः - सोमाभिषव करनेवाले।


स्तुवतः - स्तुति करनेवाले।


शंसम् - स्तुति की।


प्र आवः - हर तरह से रक्षा।


भावार्थ - इस मंत्र में कहा गया है कि वृत्र के कुछ अनुचर इंद्रदेव की हंसी उड़ा रहे थे तथा कुछ डरकर रूदन कर रहे थे। इन्द्र ने आकाश के पार भी युद्ध किया और डकैत वृत्र को स्वर्ग से लाकर , उसको तथा उसके परिवार को नष्ट कर दिया। इस तरह से आपने सोमरस बनाने वालों की तथा स्तुति करनेवालों की स्तुति की रक्षा की।


गूढार्थ: हमारे चित्त की वृत्तियां वही वृत्रासुर है। यही वृत्तियां उठकर विक्षिप्तता पैदा करती हैं,अशान्ति करती है जिससे असंतोष होता है। इन सब से जीव दुखी होता है। जब इन वृत्तियों से मुक्ति मिलती है या जब हम इनको समझ लेते हैं तब प्राण स्वयं को इन वृत्तियों से हटा लेता है। प्राण कभी सोता नहीं, चित्त सो जाता है, मन और बुद्धि सो जाते हैं। तब सुषुप्ति में परमात्मा तो रहते हैं पर वहां कोई कार्य या क्रिया नही होती। बच जाता है केवल आनंद। उस आनंद के साथ में दृष्टा रहता है इसीलिये गहरी नींद से उठने पर हम सुख का अनुभव करते हैं। उस समय वहां परमात्मा के होने से समस्त वृतियों का शमन हो जाता है और हम आनंद का अनुभव करते हैं




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