Rig Ved 1.36.3
प्र त्वा॑ दू॒तं वृ॑णीमहे॒ होता॑रं वि॒श्ववे॑दसं ।
म॒हस्ते॑ स॒तो वि च॑रंत्य॒र्चयो॑ दि॒वि स्पृ॑शंति भा॒नवः॑ ॥
Translation :
होतारम् - The one performing Yagya.
विश्ववेदसम् - All knowing one.
दूतम् - Messenger
त्वा - Yours.
प्र वृणीमहे - To bow.
महः - Great.
सतः - Regular.
ते अर्चय - Illuminates.
वि चरन्ति - Spread on all sides.
भानवः - Rays.
दिवि - From Dhyulok.
स्पृशन्ति - To touch.
Explanation :Oh Agnidev!
You are the one conducting this Yagya, the all knowing messenger of devtas. You are the Supreme Truth and great. We bow before you. You are eternal and sublime. Your rays spread on all sides and reach the sky
Deep meaning: Here Parmatma is described as Satya Swarup, it means that Parmatma is one but has many forms. The flames spread across the sky means that Parmatma is one but he takes many forms in order to control all the activities of this earth। Bhagwat says
"यथैन्द्रियैः पृथग्द्वारैरर्थो बहुगुणाश्रयः।
एको नानेयते तद्वद्भगवान शास्त्रवर्त्मभिः।।
(The form(रूप), Rass(रस) and fragrance(गंध) of a base of a single material is experienced differently by our various senses, similarly our different scriptures propagate different ways to experience the existence of one Parmatma.)
#मराठी
ऋग्वेद १.३६.३
प्र त्वा॑ दू॒तं वृ॑णीमहे॒ होता॑रं वि॒श्ववे॑दसं ।
म॒हस्ते॑ स॒तो वि च॑रंत्य॒र्चयो॑ दि॒वि स्पृ॑शंति भा॒नवः॑ ॥
भाषांतर :
होतारम् - यज्ञाचे होता.
विश्ववेदसम् - सर्वज्ञ.
दूतम् - दूत.
त्वा - आपले.
प्र वृणीमहे - वरण करने.
महः - महान.
सतः - नित्य.
ते अर्चय - प्रकाशमान.
वि चरन्ति - विविध प्रकाराने पसररून जाणे.
भानवः - किरणें.
दिवि - द्युलोक.
स्पृशन्ति - स्पर्श करणे.
भावार्थ: हे अग्निदेव! आपण यज्ञ निष्पादक, देवतांचे दूत आणि सर्वज्ञ आहात. आम्ही आपल्या पुढे नतमस्तक आहोत.आपण नित्य आणि पूजनीय आहोत. आपली ज्वाला चारही बाजूस पसरून आकाशापर्यंत जाते.
गूढार्थ: इथे परमात्माला सत्यस्वरूप म्हटले आहेत अर्थात परमात्मा एकच परंतु त्याची स्वरूप अनेक आहेत। आकाशात पसरलेल्या ज्वाला म्हणजेच परमात्मा एकच असून परंतु तो अनेक रूपाने पृथ्वीवरील हालचालींचे नियंत्रण करतो।भागवत मधे म्हटले आहे
"यथैन्द्रियैः पृथग्द्वारैरर्थो बहुगुणाश्रयः।
एको नानेयते तद्वद्भगवान शास्त्रवर्त्मभिः।।"(ज्या प्रमाणे रूप, रस आणि गंध यांचे मूलतत्त्व असते पण आपण वेगवेगळ्या संवेदनांनी त्याचे अनुभव घेतो,त्याचप्रमाणे निरनिराळी पद्धती ने एकाच परमात्म्याचा अनुभव घेतात).
#हिन्दी
ऋग्वेद १.३६.३
प्र त्वा॑ दू॒तं वृ॑णीमहे॒ होता॑रं वि॒श्ववे॑दसं ।
म॒हस्ते॑ स॒तो वि च॑रंत्य॒र्चयो॑ दि॒वि स्पृ॑शंति भा॒नवः॑ ॥
अनुवाद:
होतारम् - यज्ञ के होता।
विश्ववेदसम् - सर्वज्ञ।
दूतम् - दूत।
त्वा - आपको।
प्र वृणीमहे - वरण करना।
महः - महान।
सतः - नित्य।
ते अर्चय - दीप्तिमान।
वि चरन्ति - विविध प्रकार से फैलना।
भानवः - किरणें।
दिवि - द्युलोक में।
स्पृशन्ति - स्पर्श करना।
भावार्थ:हे अग्निदेव !आप यज्ञ निष्पादक, देवताओं के दूत और सर्वज्ञ हो। आप महान और सत्य स्वरूप हो। हम आपका वरण करते हैं। आप नित्य और पूजनीय हो।आपकी ज्वाला चारों तरफ फैलकर आकाश तक पहुंचती है।
गूढार्थ: यहां परमात्मा को सत्यस्वरूप बतलाया गया है अर्थात परमात्मा एक ही है पर स्वरूप अनेक हैं। ज्वाला आकाश तक फैलने से तात्पर्य है कि परमात्मा एक ही है पर उसके अनेक रूप हैं जिससे वह समस्त संसार की गतिविधियों का नियंत्रण करता है।भागवत मे भी कहा गया है-
"यथैन्द्रियैः पृथग्द्वारैरर्थो बहुगुणाश्रयः।
एको नानेयते तद्वद्भगवान शास्त्रवर्त्मभिः।।"
(जिस प्रकार रूप, रस और गंध आदि अनेक गुणों का आश्रयभूत एक ही पदार्थ भिन्न भिन्न इन्द्रियों द्वारा विभिन्न रूप से अनुभूत होता है,वैसे ही शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान की अनेक प्रकार से अनुभूति होती है।)
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