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Writer's pictureAnshul P

RV 1.37.4

Updated: Jan 12, 2021


Rig Ved 1.37.4


Here this mantra States that our Praan is always pure, but our mind and lust makes it impure. These impurities or vices are born in mind and thoughts. Praan is considered to be devta. So we have to sing its praises. Praan is always active(Marudgans are called Praan). Our other body parts will be rendered as useless in the absence of Praan.


प्र वः॒ शर्धा॑य॒ घृष्व॑ये त्वे॒षद्यु॑म्नाय शु॒ष्मिणे॑ ।

दे॒वत्तं॒ ब्रह्म॑ गायत ॥


Explanation :


वः - Yours.


शर्धाय - Strong.


घृष्वये - One defeating enemies.


त्वेषद्युम्नाय - With sparkling glory.


शुष्मिणे - For strong.


देवत्तम् - Received through good will of devtas.


ब्रह्म - Havi as food.

प्र गायत - To praise.


Explanation: Here Rishi's are requested to sing praises of the strong, enemy destroyer and one with glowing fame, the Marudgans through Havi or offerings got through the bounty of devtas.


Deep meaning: Here this mantra States that our Praan is always pure, but our mind and lust makes it impure. These impurities or vices are born in mind and thoughts. Praan is considered to be devta. So we have to sing its praises. Praan is always active(Marudgans are called Praan). Our other body parts will be rendered as useless in the absence of Praan.






#मराठी


ऋग्वेद १.३७.४


प्र वः॒ शर्धा॑य॒ घृष्व॑ये त्वे॒षद्यु॑म्नाय शु॒ष्मिणे॑ ।

दे॒वत्तं॒ ब्रह्म॑ गायत ॥


भाषांतर :


वः - आपले.


शर्धाय - बलवान.


घृष्वये - शत्रूदमन करणारे.


त्वेषद्युम्नाय - प्रकाशित दीप्ति युक्त.


शुष्मिणे - बलवानांसाठी.


देवत्तम् - देवतांचे माध्यमे. र


ब्रह्म - हवि रुपाने प्राप्त.


प्र गायत - स्तुति करणे.


भावार्थ:इथे ऋषींना हे म्हटलेले आहे की त्यांनी बलवान, शत्रू विनाशक आणि देदीप्यमान कीर्ती असणारे मरूतांसाठी देवतांचे अनुग्रहाने प्राप्त हविच्या उद्देशून स्तुती करावी.


गूढार्थ: इथे म्हटलेले आहे की प्राण तर शुद्ध असतो, त्यात अशुद्धतचे कारण असतात मन, चित्त आणि वासना. प्राण तर सदैव क्रियाशील राहतात. जेंव्हा शरीर झोपते तेंव्हा प्राण सक्रिय राहतो, मन आणि शरीर झोपून जातात. प्राणांना देवता मानून( मरूदगणांना प्राण स्वीकारले आहे) त्यांची स्तुती करण्यासाठी म्हणत आहे कारण जेंव्हा प्राणच राहणार नाही तर शरीराचे अन्य अवयव व्यर्थ आहेत.



#हिन्दी


ऋग्वेद १.३७.४


प्र वः॒ शर्धा॑य॒ घृष्व॑ये त्वे॒षद्यु॑म्नाय शु॒ष्मिणे॑ ।

दे॒वत्तं॒ ब्रह्म॑ गायत ॥


अनुवाद:


वः - तुम्हारे।


शर्धाय - बलवान।


घृष्वये - शत्रु का दमन करनेवाला।


त्वेषद्युम्नाय -दीप्तिमान कीर्तियुक्त।


शुष्मिणे - बलवान के लिए।


देवत्तम् - देवताओं के अनुग्रह से प्राप्त।


ब्रह्म - हवि के रूप मे।


प्र गायत - स्तुति करना।


भावार्थ:यहां ऋषियों से कहा जा रहा है कि कि वे बलशाली, शत्रु विनाशक और देदीप्यमान कीर्तिवाले मरूतों की देवताओ से अनुग्रह प्राप्त हवि के उद्देश्य से स्तुति करें।


गूढार्थ:इसमें कहा गया है कि प्राण तो शुद्व होता है, उसमें अशुद्धि आती है वासना से और वासना का स्थान चित्त है, मन है, बुद्धि है। प्राण तो सदैव क्रियाशील होता है। जब शरीर सोता है तब प्राण नहीं सोता बल्कि मन और चित्त सो जाते हैं। प्राण को देवता मानकर(मरूदगण को प्राण कहा गया है) उसकी स्तुति करने के लिए कहा गया है क्योंकि प्राण नहीं होगा तो शरीर के सारे अवयव निरर्थक हो जायेंगे।



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