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Writer's pictureAnshul P

RV 1.38.4

Updated: Feb 2, 2021


Rig Ved 1.38.4


यद्यू॒यं पृ॑श्निमातरो॒ मर्ता॑सः॒ स्यात॑न ।

स्तो॒ता वो॑ अ॒मृतः॑ स्यात् ॥


Translation :


पृश्निमातरः - Oh Prushni sons!( Marut)


यत् - Although.


यूयं मर्तासः - Humans.


स्यातन - Or.


वः - Yours.


स्तोता - Admiring Yajmans.


अमृतः - Immortal devtas.


स्यात् - To be.


Explanation : Oh the servers of motherland and the children of sky, Marudgans! Although you are mortal but one who sings your praises becomes immortal.


Deep meaning: This whole world is Praan swarup. Praan depends on Vaayu. The body is alive only till Vaayu remains in our body. Vaayu, when it is Sarva vyapak or wide spread, it is Brahm swarup otherwise it is Jeev swarup. To use it forever then we have to remove its difference from its individual swarup and bring it in oneness with Brahm swarup to realize the real self.(Vaayu is described as mortal since it converts itself into body parts. One who uses it is secure against death).


📸 Credit - devotee_of_lord_ram(Instagram handle)



#मराठी


ऋग्वेद १.३८.४


यद्यू॒यं पृ॑श्निमातरो॒ मर्ता॑सः॒ स्यात॑न ।

स्तो॒ता वो॑ अ॒मृतः॑ स्यात् ॥


भाषांतर :


पृश्निमातरः - हे पृश्निचे पुत्र!( मरूत)


यत् - आपले.


यूयं मर्तासः - आपण मनुष्य.


स्यातन - परंतु.


वः - आपले.


स्तोता - प्रशंसनीय यजमान.


अमृतः - मरणरहित देव.


स्यात् - होणे.


भावार्थ:हे मातृभूमीची सेवा करणाऱ्या आकाशपुत्र मरूदगण! यद्यपि आपण मरणशील आहात पण आपली स्तुति करणाऱ्यांना अमरत्व प्राप्त होते.


गूढार्थ: समस्त संसार प्राण स्वरूप आहे. प्राण वायूचे अधीन आहे.

वायू, जेव्हा सर्वस्वरूप असतो , तेव्हा तो ब्रह्मस्वरूप असतो . एरवी तो जीवस्वरूप असतो . कायमस्वरूपी त्याचा उपयोग करायचा असल्यास जीवस्वरूपाकडून ब्रह्मस्वरूपाकडे वळवावा लागेल . जीवस्वरूप व ब्रह्मस्वरूप यातील फरक नाहिसा करावा लागेल.( वायूला मरणशील म्हटलेले आहे कारण ते प्राण्यांच्या अंगात रूपांतरित होते. वायू सेवन करणारा मृत्यू पासून सुरक्षित राहतो).


#हिन्दी


ऋग्वेद १.३८.४


यद्यू॒यं पृ॑श्निमातरो॒ मर्ता॑सः॒ स्यात॑न ।

स्तो॒ता वो॑ अ॒मृतः॑ स्यात् ॥


अनुवाद:


पृश्निमातरः - हे पृश्नि के पुत्रों! (मरूत्)


यत् - यद्यपि।


यूयं मर्तासः - आप मनुष्य।


स्यातन - किन्तु।


वः - आपके।


स्तोता - प्रशंसक यजमान।


अमृतः - मरणरहिते देव।


स्यात् - होना।


भावार्थ:हे मातृभूमि की सेवा करनेवाले आकाशपुत्र मरूतों!यद्यपि आप मरणशील हैं पर आपकी स्तुति करनेवाले अमरता प्राप्त करते हैं।


गूढार्थ: समस्त संसार प्राण स्वरूप है। प्राण वायु के अधीन है। जब तक वायु शरीर में है तब तक शरीर जीवित है। समस्त उपाधियों में व्याप्त रहनेवाला यह प्राण स्वरूप वायु है। वायु सर्वव्यापक है तो ब्रह्मस्वरूप और नही तो यह जीव स्वरूप है।तो इसका सदा सेवन करने के लिए जो इसके व्यष्ठि के भेद से निकाल कर ब्रह्मरूप से एकता करके देखेगा वही उसे समझ पायेगा।( वायु को मरणशील कहा गया है क्योंकि वह प्राणियों के अंगों में रूपांतरित हो जाता है किन्तु वायु सेवन करनेवाला मृत्यु से बच जाता है।)





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