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Writer's pictureAnshul P

RV 1.38.6

Updated: Feb 4, 2021


Rig Ved 1.38.6


वासना(Lust) is the main basis of sin. To inflict pain on someone or if one does Karma's against Vedas, that is Paap or sin We should make a definite effort to avoid this. One who is complete, one who is unaligned or one who is detached cannot commit a sin since that is atma. It is pure since there is no effect of Paap or Punya. Atma is wisdom, it is Chaitanya therefore it is gyanswarup. It is Praanswarup because of being Chaitanya. It is Anandswaroop because it is sorrowless. When there is a desire and longing in jeev it is impure. Shruti Bhagwati is telling us the secret on how to avoid these sins.



मो षु णः॒ परा॑परा॒ निर्ऋ॑तिर्दु॒र्हणा॑ वधीत् ।

प॒दी॒ष्ट तृष्ण॑या स॒ह ॥


Translation :


परापरा - Very Strong.


दुर्हणा - Cannot be killed.


निऋति - Demon or Alaxmi.


नः - Ours.


ने षु वधीत - Not to be killed.


तृष्णया - With greed.


सह - Together.


पदीष्ट - To go.


Explanation : We should make an effort to destroy our inner inclinations before they become strong. In fact we should keep them thirsty or unfulfilled so that they destroy themselves.


Deep meaning:- वासना(Lust) is the main basis of sin. To inflict pain on someone or if one does Karma's against Vedas, that is Paap or sin We should make a definite effort to avoid this. One who is complete, one who is unaligned or one who is detached cannot commit a sin since that is atma. It is pure since there is no effect of Paap or Punya. Atma is wisdom, it is Chaitanya therefore it is gyanswarup. It is Praanswarup because of being Chaitanya. It is Anandswaroop because it is sorrowless. When there is a desire and longing in jeev it is impure. Shruti Bhagwati is telling us the secret on how to avoid these sins.




#मराठी


ऋग्वेद १.३८.६



मो षु णः॒ परा॑परा॒ निर्ऋ॑तिर्दु॒र्हणा॑ वधीत् ।

प॒दी॒ष्ट तृष्ण॑या स॒ह ॥


भाषांतर :


परापरा - अत्यधिक शक्तिशाली.


दुर्हणा - अवध्य.


निऋति - अलक्ष्मी किंवा राक्षसी.


नः -आमचे.


ने षु वधीत - सर्वथा न मारणे.


तृष्णया - लोभाचे.


सह - बरोबर.


पदीष्ट - जाणे.


भावार्थ:आम्हास निरंतर हे प्रयास करवावे लागणार की शक्तिशाली प्रवृत्तिंनी आमची दुर्दशा करू नये एरवी आम्हीच त्यांना अतृप्त राखूनच नष्ट करू.


गूढार्थ: पाप वासनेचे मूळ असतो.कुणाला ही पीडा देणे अथवा वेद विरूध्द कर्म करणे, ते पापच असते.तर आपणास प्रयत्नपूर्वक असे कर्म केले पाहिजे की आपण पापा पासून दूर राहू. जे अखंड आहे, निर्लेप आहे आणि असंग आहे त्यामधे पापाचा अभाव असतो, तोच आत्मा आहे. त्यावर पाप आणि पुण्याचा काहीही प्रभाव पडत नाही. आत्मा प्रज्ञावंत असून तो चैतन्य आहे, म्हणून ज्ञानस्वरूप आहे. चैतन्य असल्यामुळे तो प्राणस्वरूप आहे, निर्दुःख होण्याचे नाते ते आनंदस्वरूप आहे. जेव्हा जीव कामना आणि इच्छा करतो तेंव्हा तो मलिन होतो.तर श्रुति भगवती त्या पासून रक्षण करण्याचे रहस्य सांगतात.



#हिन्दी


ऋग्वेद १.३८.६



मो षु णः॒ परा॑परा॒ निर्ऋ॑तिर्दु॒र्हणा॑ वधीत् ।

प॒दी॒ष्ट तृष्ण॑या स॒ह ॥


अनुवाद:


परापरा - अधिक शक्ति संपन्न।


दुर्हणा - जिसका वध न हो सके।


निऋति - अलक्ष्मी या राक्षसी।


नः - हमें।


ने षु वधीत - नही मारना।


तृष्णया - लालच।


सह - साथ।


पदीष्ट - चले जाना।


भावार्थ:हमें इस बात का निरंतर ध्यान रखना है कि शक्तिशाली प्रवृत्तियां हम पर हावी होकर हमारा विनाश न करें। हमें इस बात का प्रयास करना है कि ये प्यास( अतृप्ति) से ही समाप्त हो जायें।


गूढार्थ: पाप वासना के मूल में है। किसी को पीडा पहुंचाना और वेद विरूद्ध कर्म करना, वो पाप बन जाता है। तो प्रयत्नपूर्वक हमें ऐसे कामों से बचना चाहिए ।जो अखंड है, निर्लेप है असंग है उसमें पाप का अभाव है और वह आत्मा है ।वह पवित्र है क्योंकि उस पर पाप पुण्य का असर नहीं होगा।आत्मा प्रज्ञावान होने के नाते चैतन्य है इसलिए ज्ञानस्वरूप है। चैतन्य होने के नाते वह प्राण स्वरूप है,निर्दुख होने के नाते वह आनंदस्वरूप है। जब जीव कामना और इच्छा करता है तब मलिन हो जाता है।




तो श्रुति भगवती उसकी रक्षा करने के लिए यह रहस्य बता रहीं हैं।

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