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Writer's pictureAnshul P

RV 1.39.5

Updated: Feb 19, 2021


Rig Ved 1.39.5


Here mountains denote lifelessness or inertia and trees denote our stupidity. If the intelligence starts flowing in our Praan then all the disparities end. Not only we attain Knowledge but we develop the ability to think clearly. Like Sun cannot be seperated from its glow similarly even vice versa is true. Praan never sleeps so also its visualiser Atma also does not sleep although our body, inclinations and mind sleep. This is because they are above the three gunas(त्रिगुणातीत). Shruti Bhagwati is explaining this.


प्र वे॑पयंति॒ पर्व॑ता॒न्वि विं॑चंति॒ वन॒स्पती॑न् ।

प्रो आ॑रत मरुतो दु॒र्मदा॑ इव॒ देवा॑सः॒ सर्व॑या वि॒शा ॥


Translation:


प्र वेपयंति - Specialist shivering.


पर्वतान् - On mountains.


वि विचन्ति - Seperate mutually.


वनस्पतीन् - Flora.


प्रो आरत - In all places.


मरूतः - Oh Maruts!


दुर्मदाः इव - Like intoxicated.


देवासः - Devtas.


सर्वया - Total.


विशा - With the subjects.


Explanation:Oh Marudgans! You make the mountains shiver and uproot the trees on your way like an intoxicated person. You are requested to keep the welfare of the people or subjects before you.


Deep meaning: Here mountains denote lifelessness or inertia and trees denote our stupidity. If the intelligence starts flowing in our Praan then all the disparities end. Not only we attain Knowledge but we develop the ability to think clearly. Like Sun cannot be seperated from its glow similarly even vice versa is true. Praan never sleeps so also its visualiser Atma also does not sleep although our body, inclinations and mind sleep. This is because they are above the three guna's(त्रिगुणातीत).Shruti Bhagwati is explaining this.




#मर#RigVedPositivity


ऋग्वेद १.३९.५


प्र वे॑पयंति॒ पर्व॑ता॒न्वि विं॑चंति॒ वन॒स्पती॑न् ।

प्रो आ॑रत मरुतो दु॒र्मदा॑ इव॒ देवा॑सः॒ सर्व॑या वि॒शा ॥


भाषांतर:


प्र वेपयंति - विशेष रूपाने कंपित.


पर्वतान् - पर्वतांवर.


वि विचन्ति - परस्स्पर वियुक्त होणे.


वनस्पतीन् - वनस्पति.


प्रो आरत - सर्व स्थानांवर.


मरूतः - हे मरूत!


दुर्मदाः इव - मदोन्मत सारखे.


देवासः - देव.


सर्वया - संपूर्ण.


विशा - प्रजा बरोबर.


भावार्थ:हे मरूदगण! आपण मदाने उन्मत्त झालेल्या लोकांसारखे पर्वतांना प्रकंपित करत आणि वृक्षांना समूळ फेकून निघून जाता. म्हणून आपण प्रजाजनांना समोर करीत उन्नती करून चालावे.


गूढार्थ: आमचा जडपणा हेच पर्वत आहेत.वृक्ष आमच्या मूर्खपणेचे प्रतीक आहेत. जर आमच्या प्राणांमधे प्रज्ञेचे संचारण होउ लागेल तर सर्व विषमता समाप्त होइल. प्रज्ञे बरोबर आम्ही भावने ने आम्ही परिपूर्ण होउ.ज्या प्रकारे सूर्याला वेगळं करणे अशक्य आहे कारण की तिथे प्रकाश असतो.जिथे सूर्य तिथे प्रकाश. प्राण कधी झोपत नसतो.मन, शरीर आणि इन्द्रिये झोपतात तर आत्मा पण दृष्टा ह्या अनुषंगाने झोपत नाही. ते त्रिगुणातीत आहेत.श्रुति भगवती हे बोलत आहेत.




#हिन्दी


ऋग्वेद १.३९.५


प्र वे॑पयंति॒ पर्व॑ता॒न्वि विं॑चंति॒ वन॒स्पती॑न् ।

प्रो आ॑रत मरुतो दु॒र्मदा॑ इव॒ देवा॑सः॒ सर्व॑या वि॒शा ॥


अनुवाद:


प्र वेपयंति - विशेष रूप से कंपित होना।


पर्वतान् - पर्वतों को।


वि विचन्ति - परस्पर वियुक्त करते हैं।


वनस्पतीन् - वनस्पति।


प्रो आरत - सब जगह जाना।


मरूतः - हे मरूत!


दुर्मदाः इव - मदोन्मत जैसा।


देवासः - देवों!


सर्वया - संपूर्ण।


विशा - प्रजा के साथ।


भावार्थ: हे मरूदगण! आप मद से उन्मत लोगों जैसे पर्वतों को कंपा देते हो और पेडों को समूल उखाड़ देते हो। अतः आप प्रजाओं के आगे आगे उन्नति करते हुए चलिये।


गूढार्थ: हमारी जड़ता ही पर्वत है।वृक्ष हमारी मूर्खता का प्रतीक है। अगर हमारे प्राण में प्रज्ञा का संचालन होने लगे तो सारी विषमता ही समाप्त हो जायेगी। प्रज्ञावान के साथ साथ हम भाव से भी परिपूर्ण हो जाते हैं। जिस प्रकार सूर्य को अलग से नही बताया जा सकता है उसी में प्रकाश है। सूर्य है तो प्रकाश है। प्राण कभी नहीं सोता है, मन, शरीर और इन्द्रियां सोती हैं तो उसके साथ अात्मा भी दृष्टा है वह भी वहीं सोता।दोनो त्रिगुणातीत हैं। श्रुति भगवती यहां यही बात कह रहीं हैं।





📸 Credit - Mahadev_Devadhidev (Instagram handle)

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