Rig Ved 1.40.1
उत्ति॑ष्ठ ब्रह्मणस्पते देव॒यंत॑स्त्वेमहे ।
उप॒ प्र यं॑तु म॒रुतः॑ सु॒दान॑व॒ इंद्र॑ प्रा॒शूर्भ॑वा॒ सचा॑ ॥
Translation:
ब्रहणस्पते - Oh Brihaspati dev!
उतिष्ठ - To rise.
देवयंत: - For devtas.
स्वा - By you.
ईमहे - To plead.
सुदानव: - Best type of charity.
मरुतः - Of Marudgans.
उप - Near.
प्र यन्तु - To go.
इन्द्र - Oh Indra!
सचा - Together.
प्राशू: - The. One's drinking Somaras.
भव - To be.
Explanation;Oh Brahanaspati dev! We call you through our singing of praises. Oh the benevolent Marudgans! You come to us. You are requested to drink Somaras along with. Indradev.
Deep meaning: Here Brahmanaspati means Acharya. Marudhgan means Praan. Universe is made up of three things " तद्जलनीति" wherein तद means tej or brightness. When one gets food then the mind develops, Water is essential for Praan and tej gives you the ability to speak. Your speech enlightens you and you evolve the ability to spread the shastras. उद्भव स्तिथ संहार this process is carried on by Parmatma. The scientifically inclined people believe that the universe was a ball of fire which cooled down eventually and evolved in its present form. As per Ved तद्जलनीति is true. Three things matter, they are fire food and water. Here Parmatma is requested to nurture our voice or speech through tej, praan through water and knowledge through food. If we are fully nurtured by these three then only we develop the ability to think good. If any one of this is weak, then their balance is disturbed. So we request Parmatma to maintain this equilibrium.
#मराठी
ऋग्वेद१.४०.१
उत्ति॑ष्ठ ब्रह्मणस्पते देव॒यंत॑स्त्वेमहे ।
उप॒ प्र यं॑तु म॒रुतः॑ सु॒दान॑व॒ इंद्र॑ प्रा॒शूर्भ॑वा॒ सचा॑ ॥
भाषांतर:
ब्रहतणस्पते - हे ब्रहणस्पति देव।
उतिष्ठ - उठणे.
देवयंत: - देवांची कामना करणे.
स्वा - आपले.
ईमहे - याचना करणे.
सुदानव: - शोभन दान युक्त.
मरुतः - मरुद्गणांचे.
उप - जवल.
प्र यन्तु - जाणे.
इन्द्र - इन्द्राचे.
सचा - बरोबर.
प्राशू: - सोमरसाचे प्राशन करण.
भव - होणे।
भावार्थ;हे ब्रहणस्पते देव! आम्ही आपली स्तुति करत आहोत. हे कल्याणकारी मरूदगण!आपण आमच्या जवल यावेत. आपण इन्द्रदेव सोबत सोमरसाचे प्राशन करावे.
गूढार्थ-- इथे ब्रह्मणस्पती म्हणजे आचार्य किंवा बृहस्पती आहे .मरूदगणचा अर्थ प्राण आहे .सृष्टीची निर्मिती तीन गोष्टींनी झाली आहे. तद्जलनीती . तद म्हणजे तेज .जेव्हा सर्वाना अन्न - आहार मिळतो तेंव्हा मन निर्माण होते .जलाने प्राण बनतो . तेजाने वाक् किंवा वाणी बनते .त्याच्यामुळे आपण मंत्रोच्चारण करू शकतो .शास्त्राचा विस्तार तेजाने होतो .उत्पत्ती- स्थिती- लय या प्रक्रियेने परमात्मा सृष्टीची रचना करतात .विज्ञानवादी म्हणतात की पृथ्वी प्रथम आगीचा गोळा होती. हळूहळू तो गोळा थंड झाल्यावर या रूपात आला .वेद म्हणतात की ' तद्जलनीती ' ह्या एकाच शब्दाचा अर्थ आहे जयप्रकाश , अन्न आणि जल . इथे प्रार्थना केली आहे की आमचे शरीर तेजाने वाणी , जलाने प्राण आणि अन्नान्न प्रज्ञा या तिघांमुळे परिपुष्ट झाले तेव्हाच आम्ही सद् चा विचार करू लागलो .यातील एक तत्व दुर्बळ झाले की संतुलन बिघडते .म्हणून इथे तिन्हीच्या सुंतुलनासाठी प्रार्थना केली आहे.
#हिन्दी
ऋग्वेद१.४०.१
उत्ति॑ष्ठ ब्रह्मणस्पते देव॒यंत॑स्त्वेमहे ।
उप॒ प्र यं॑तु म॒रुतः॑ सु॒दान॑व॒ इंद्र॑ प्रा॒शूर्भ॑वा॒ सचा॑ ॥
अनुवाद:
ब्रहतणस्पते - हे ब्रहणस्पती देव!
उतिष्ठ - उठना।
देवयंत: - देवों की कामना करना।
स्वा - आपसे।
ईमहे - याचना करना।
सुदानव: - शोभन दान युक्त।
मरुतः - मरुद्गण के।
उप - पास मे ।
प्र यन्तु - जाना।
इन्द्र - हे इन्द्र!
सचा - साथ।
प्राशू: - सोमरस का प्राशन करनेवाले।
भव - होना।
भावार्थ:हे ब्रहणस्पते देव! हम आपको बुलाते हैं हम आपकी स्तुति करते हैं।हे!कल्याणकारी मरुद्गण! आप हमारे पास आऐं। आप इन्द्र देव के साथ सोमरस का प्राशन करें।
भावार्थ:यहां ब्रहम्णस्पते से तात्पर्य आचार्य या ब्रहस्पति से है और मरूदगण से तात्पर्य प्राण से है।सृष्टि तीन चीजो से बनी है " तदजलाइति" ।तद का अर्थ हुआ तेज।जब सबको अन्न से आहार मिलेगा तब मन बनता हैं और जल से प्राण बनता है, तेज से वाक् रहता है।वाणी के द्वारा हम मंत्रों का उदबोधन करते हैं हम शास्त्र का विस्तार करते हैं वह तेज द्वारा होती है।उदभव स्थित संहार" यह प्रक्रिया परमात्मा द्वारा होती है। विज्ञानवादी कहते हैं कि पहले धरती आग का गोला था वह धीरे धीरे ठंडा हुआ और अपने इस रूप मे आया। वेद के अनुसार एक शब्द दिया तदजलानइति।तद का अर्थ हुआ बहुत तेज प्रकाश या अग्नि के अलावा अन्न और जल। यहां यह प्रार्थना की जा रही है की हमारे शरीर में तेज से वाक् और जल से प्राण और अन्न से प्रज्ञा ये तीनो परिपुष्ट हों तब हम सद का विचार कर सकते हैं।एक भी तत्व दुर्बल हुआ तो इसका संतुलन बिगड़ सकता है।यहां इन तीनो का संतुलन बनाए रखने की प्रार्थना की गई है
📸 Credit - n_shiva_devotee(Instagram handle)
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