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RV 1.40.2

Updated: Mar 12, 2021


Rig Ved 1.40.2


Here marudgans are requested to help the yajmans at the time of war. Our actual war is with ignorance. We will become truly powerful and able bodied only after defeating ignorance. The yajmans request marudgans to make them effective rather than make them lacking in something. Let their nature and effectiveness be divine. Let their Praan and Pragya { knowledge} become capable. Mind will be enriched only when it is satisfied. Unsatisfied and sad mind cannot carry out the work of Paramarth. Only quiet and reclusive mind can think of Paramarth. Those who are unattached can only experience constant mind(स्थिर बुद्धि). The one with determined insight only can know their true self. This is what we wish Parmatma to grant us.


त्वामिद्धि स॑हसस्पुत्र॒ मर्त्य॑ उपब्रू॒ते धने॑ हि॒ते ।

सु॒वीर्यं॑ मरुत॒ आ स्वश्व्यं॒ दधी॑त॒ यो व॑ आच॒के ॥


Translation:


सहस्त्रपुत्र - Oh the protector of many Waters!


मर्त्य: - Human.


हिते - Formidable for enemies.


धने - For wealth.


त्वाम - Yours.


इत - This.


उप ब्रूते - Near.


हि - Is there.


मरुतः - Marudgan.


यः - Which.


व: - Yours.


आचके - To praise.


स्वश्यव्यम - With beautiful horses.


सुवीर्यम - With best valour.


आ दधित - To wear on all sides.


Explanation: Oh the doers of all courageous works! The men call out to you during wars. Oh Maruts! The men seeking wealth who sing your praises, You along with Brahanaspati dev provide them with best horses and best courage and wealth.


Deep meaning: Here marudgans are requested to help the yajmans at the time of war. Our actual war is with ignorance. We will become truly powerful and able bodied only after defeating ignorance. The yajmans request marudgans to make them effective rather than make them lacking in something. Let their nature and effectiveness be divine. Let their Praan and Pragya { knowledge} become capable. Mind will be enriched only when it is satisfied. Unsatisfied and sad mind cannot carry out the work of Paramarth. Only quiet and reclusive mind can think of Paramarth. Those who are unattached can only experience constant mind(स्थिर बुद्धि). The one with determined insight only can know their true self. This is what we wish Parmatma to grant us.


📸 Credit - Kamesh sir(Instagram)



#हिंदी


ऋग्वेद १.४०.2


त्वामिद्धि स॑हसस्पुत्र॒ मर्त्य॑ उपब्रू॒ते धने॑ हि॒ते ।

सु॒वीर्यं॑ मरुत॒ आ स्वश्व्यं॒ दधी॑त॒ यो व॑ आच॒के ॥


अनुवाद:


सहस्त्रपुत्र - हे बहु जल पालक!


मर्त्य: - मनुष्य।


हिते - शत्रुओं के बीच प्रक्षिप्त।


धने - धन के लिये।


त्वाम - आपके।


इत - ही।


उप ब्रूते - पास ही।


हि - ही है।


मरुतः - मरूदगण!


यः - जो।


व: - आपके।


आचके - स्तुति करना।


स्वश्यव्यम - शोभन अश्व युक्त।


सुवीर्यम - शोभन वीर्य युक्त।


आ दधित - सब तरफ से धारण करना।


भावार्थ: हे साहसिक कार्यो को करनेवाले ब्रह्मणस्पति देव!युद्ध में मनुष्य आपका आवाहन करते हैं।हे मरुतों!जो धनार्थी मनुष्य जो भी आपके साथ ब्रह्मणस्पति देव की स्तुति करता है वह उत्तम अश्वों के साथ श्रेष्ठ पराक्रम और वैभव से सम्पन्न हो।


गुढार्थ:यहां मरुद्गणों से प्रार्थना की जा रही है कि वे हमारे युद्ध में हमारी सहायता करें। हमारा युद्ध अज्ञान से है।अज्ञान को परास्त करने पर ही हम सामर्थ्यवान और शक्ति सम्पन्न हो सकते हैं।याचक मरुद्गणों से स्तुति करते हुए कहते हैं कि वे अभाव वाले नही बल्कि प्रभाव वाले हों।स्वभाव और प्रभाव उनका दिव्य हो।हमारा प्राण और हमारी प्रज्ञा दोनों सामर्थ्य शाली हों। मन का संबंध वैभव से तभी हो सकता है जब मन तृप्त हो।अतृप्त और उदास मन परमार्थ का कार्य नहीं कर सकता। वैराग्य से युक्त मन ही परमार्थ का विचार कर सकता है। जिसका कहीं भी राग न हो उसीका चित्त समाहित हो सकता है।जिसका दृढ़ बोध हो उसीको अपने स्वरूप का ज्ञान हो सकता है।इसीकी कामना परमात्मा से की जा रही है।






#मराठी


ऋग्वेद १.४०.२


त्वामिद्धि स॑हसस्पुत्र॒ मर्त्य॑ उपब्रू॒ते धने॑ हि॒ते ।

सु॒वीर्यं॑ मरुत॒ आ स्वश्व्यं॒ दधी॑त॒ यो व॑ आच॒के ॥


भाषान्तर:


सहस्त्रपुत्र - हे बहु जल पालक!


मर्त्य: - मनुष्य.


हिते - शत्रुंचा मध्ये प्रक्षिप्त.


धने - धना साठी.


त्वाम - आपण.


इत - हे.


उप ब्रूते - जवळ.


हि - आहे.


मरुतः - मरूदगण!


यः - जे.


व: - आपले.


आचके - स्तुति करणे.


स्वश्यव्यम - सुंदर अश्व युक्त.


सुवीर्यम - सुंदर वीर्य युक्त.


आ दधित - चारही बाजू धारण करणे.


भावार्थ: हे साहसी कार्य करणारे ब्रह्नणस्पति देव! युद्धात मनुष्य आपल्याला आवाहन करत आहेत। हे मरुत! जे धनार्थी मनुष्य आपले आणि ब्रह्मणस्पति देवांची स्तुति करत आहेत त्यांना उत्तम अश्व बरोबर श्रेष्ठ पराक्रम आणि वैभवा ने सम्पन्न करा.


गुदार्थ:इथे मरूदगण ह्यांना प्रार्थना केलेली आहे की ते युद्धात आमची सहायता करावी. आमचे युद्ध अज्ञानाशी आहे. अज्ञानाला पराभूत करुणच आम्ही सामर्थ्यवान आणि शक्ति संपन्न बनू. याचक मरूदगण ह्यांची स्तुति करत आहे की ते अभाव संपन्न नसून प्रभाव संपन्न असले पाहिजे. त्याचा प्रभाव आणि स्वभाव दिव्य असू दे.त्यांचे प्राण आणि प्रज्ञा दोघे सामर्थ्य शाली असावेत.मनाचे संबंध वैभवाशी येतो तेव्हा मन प्रसन्न होते. अतृप्त आणि निराश मन कधीही परमार्थचे कार्य करु शकत नाही. वैराग्य युक्त मन हेच परमार्थचे विचार करू शकतो. ज्याचा कुणावर ही राग नसतो त्याचे चित्त समाहित असतो. ज्याचे दृढ़ निश्चयी आहे तोच स्वरूपचे ज्ञान प्राप्त करू शकतो. हेच कामना परमात्माना केलेली आहे.



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