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RV 1.45.10


Rig Ved 1.45.10


There are two types of surrender to attain Shreya i.e Surrender of Mind and Knowledge as mind is the main reason of our sorrows. In Yog the mind is loosened and Knowledge is tightened in the mind. This subject is related to worship. Karmkand and Bhakti or Devotion are a part of Upasana. In Upasana we surrender our Mind itself. Everything is impressed in mind. When Mind itself has surrendered then there is no difficulty.


अ॒र्वांचं॒ दैव्यं॒ जन॒मग्ने॒ यक्ष्व॒ सहू॑तिभिः ।


अ॒यं सोमः॑ सुदानव॒स्तं पा॑त ति॒रोअ॑ह्न्यं


Translation;


अग्ने - Agnidev!


अर्वांचम् - Present In front


दैव्यम् - Devtas.


जनम् - People.


सहूतिभिः - To call at equal level.


यक्ष्व - To pray.


सुदानवः - Devtas doing Charity.


अयम् - This.


सोमः - Somras.


तम् - That.


तिरोअह्रयम् - squeezed before .


पात - To drink.


Explanation:- Oh Agnidev! The Devtas present in front of this Yagya should be welcomed through the best words. Oh the great Devtas! This Somras is for you, Kindly drink this.


Deep meaning:-There are two types of surrender to attain Shreya i.e Surrender of Mind and Knowledge as mind is the main reason of our sorrows. In Yog the mind is loosened and Knowledge is tightened in the mind. This subject is related to worship. Karmkand and Bhakti or Devotion are a part of Upasana. In Upasana we surrender our Mind itself. Everything is impressed in mind. When Mind itself has surrendered then there is no difficulty.


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📸 Credit - Bipin sir


#मराठी


ऋग्वेद १.४५.१०



अ॒र्वांचं॒ दैव्यं॒ जन॒मग्ने॒ यक्ष्व॒ सहू॑तिभिः ।


अ॒यं सोमः॑ सुदानव॒स्तं पा॑त ति॒रोअ॑ह्न्यं


भाषांतर;


अग्ने - अग्निदेव!


अर्वांचम् - समोर उपस्थित.


दैव्यम् - देव.


जनम् - लोकांना.


सहूतिभिः - बरोबरी चे आह्वान


यक्ष्व - यजन करणे.


सुदानवः - दान करणारे देव.


अयम् - हा.


सोमः - सोमरस.


तम् - त्या.


तिरोअह्रयम् - पूर्वी पिळून काढणे.


पात - प्राशन करणे.


भावार्थ;हे अग्निदेव! यज्ञासाठी प्रत्यक्ष उपस्थित असलेल्या सर्व देवतांचे आपण गोड शब्दात अभिवादन करावे व यज्ञ प्रारंभ करावा, हे श्रेष्ठ देवतानो! हा सोमरस आपल्या साठी ठेवला आहे, कृपया ह्याचे प्राशन करावे.


गूढार्थ:- आमच्या जीवनात दोन प्रकारच्या श्रेयाची प्राप्ती होते, ते असते मन आणि बुद्धीचे समर्पण कारण हेच सर्व दुःखाचे कारण असते, हे संपूर्ण समर्पण झाले की तो भक्ती मध्ये मनाचे समर्पण झाले। योगात मन शिथिल करण्यात येते आणि ज्ञानात तो बाधित असतो।इथे विषय उपासनेचा आहे। कर्मकांड आणि भक्ती दोघे उपासना नेच घेतले आहेत। उपासना मध्ये मनाला अर्पित करतात।सगळ्या वस्तूंचा आभास मनात असतात।जेव्हा मनच समर्पित असते तरी कोणतीही बाधा नसते।




#हिन्दी


ऋग्वेद १.४५.१०


अ॒र्वांचं॒ दैव्यं॒ जन॒मग्ने॒ यक्ष्व॒ सहू॑तिभिः ।


अ॒यं सोमः॑ सुदानव॒स्तं पा॑त ति॒रोअ॑ह्न्यं


अनुवाद;


अग्ने - अग्निदेव!


अर्वांचम् - सामने उपस्थित।


दैव्यम् - देव।


जनम् - लोगो के।


सहूतिभिः - बराबरी के आह्वान द्वारा।


यक्ष्व - यजन करना।


सुदानवः - दान करनेवाले देव।


अयम् - यह।


सोमः - सोमरस।


तम् - उस।


तिरोअह्रयम् - पूर्व मे निचोडकर रखा हुआ।


पात - पान करना।


भावार्थ;हे अग्निदेव! यज्ञ के सामने उपस्थित सभी देवताओं का मधुर वचनों से अभिवादन कीजिये और यजन कीजिए। हे श्रेष्ठ देवताओं यह सोमरस आपके लिए है, कृपया इसका पान करें।


गूढ़ार्थ:- हमारे जीवन में समर्पण में दो प्रकार के श्रेय की प्राप्ति होती है, मन बुद्धि का समर्पण क्योंकि सारे दुख का कारण मन है ।यह संपूर्ण समर्पण हो गया तो भक्ति में मन का समर्पण है। योग में मन को शिथिल किया जाता है, ज्ञान में मन को बाधित किया जाता है।यहां विषय उपासना का है। कर्मकांड और भक्ति को दोनों उपासना में लिया गया है।उपासना में मन को ही अर्पित करना है। सारी वस्तु का आभास मन में रहता है।जब मन ही समर्पित है तब कोई बाधा ही नही रही।

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