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Writer's pictureAnshul P

RV 1.45.3


Rig Ved 1.45.3


Parmatma is Truth incarnate, Knowledge incarnate and Happiness incarnate. He is requested that the way he listened to the appeal of the Sages similarly he should listen to our prayers so that we attain total bliss and we attain निमश्रेष(Nimshresh) meaning infinite release. Because wherever there is Attachment, death is certain. Attachment and Death are both in our minds. We should be free from Bondage of nature and Temperament because the control of the mind keeps us confused. Once liberated, we attain our real self.


प्रि॒य॒मे॒ध॒वद॑त्रि॒वज्जात॑वेदो विरूप॒वत् ।


अं॒गि॒र॒स्वन्म॑हिव्रत॒ प्रस्क॑ण्वस्य श्रुधी॒ हवं॑।।


Translation;


महिव्रत - Doing everything.


जातवेदः - Everywhere.


प्रियमेधव्रत् - Like Sage Priyamedh.


अत्रिवत् - Like Sage Atri.


विरुपवत् - Like Sage Virup.


अंगिरसवत् - Like Sage Angira.


प्रस्कण्वस्य - Like Sage Praskanvasya.


हवम् - To call.


श्रुधि - To listen.


Explanation; Oh Agnidev! The way you listened to the appeals of Sage Priyamedh, Virup, Atri and Angira, similarly you listen to the appeal of Praskanva.


Deep meaning; Parmatma is Truth incarnate, Knowledge incarnate and Happiness incarnate. He is requested that the way he listened to the appeal of the Sages similarly he should listen to our prayers so that we attain total bliss and we attain निमश्रेष(Nimshresh) meaning infinite release. Because wherever there is Attachment, death is certain. Attachment and Death are both in our minds. We should be free from Bondage of nature and Temperament because the control of the mind keeps us confused. Once liberated, we attain our real self.


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📸 India mart


#मराठी


ऋग्वेद १.४५.३


प्रि॒य॒मे॒ध॒वद॑त्रि॒वज्जात॑वेदो विरूप॒वत् ।


अं॒गि॒र॒स्वन्म॑हिव्रत॒ प्रस्क॑ण्वस्य श्रुधी॒ हवं॑।।


भाषांतर;


महिव्रत - सगळे कार्य करणारे.


जातवेदः - सर्वत्र.


प्रियमेधव्रत् - ऋषी प्रियमेध सारखे.


अत्रिवत् - ऋषी अत्री सारखे.


विरुपवत् - ऋषी विरुप सारखे.


अंगिरसवत् - ऋषी अंगिरा सारखे.


प्रस्कण्वस्य - ऋषी प्रस्कण्वस्य सारखे.


हवम् - आवाहन करणे.


श्रुधि - ऐकणे.


भावार्थ;हे अग्निदेव !ज्या पद्धतीने आपण प्रियमेध, अत्री आणि अंगिरा ऋषी ह्यांचे आवाहन ऐकले होते त्याच पद्धतीने आपण ऋषी प्रस्कण्व ह्यांचे आवाहन ऐकावे,


गूढार्थ; परमात्मा ज्ञानस्वरूप, सत्यस्वरूप व आनंद स्वरूप आहे, परमात्म्याशी निवेदन केलेले आहे की ज्या प्रकारे आपण ऋषी ह्यांचे आवाहन ऐकले त्याच प्रमाणे आमची प्रार्थना ऐकावी, ज्याने आमचे परम कल्याण होईल आणि आम्हास निमश्रेषची प्राप्ती होईल म्हणजे ज्याने आमची आत्यंतिक निवृत्ती होईल आणि आम्ही मुक्त होऊ, कारण जिथे बंधन आहेत तिथे मृत्यू आहे , मनात बंधन असतो आणि मनात मृत्यु पण असतो, मनात स्वभाव आणि प्रकृती पासून मुक्ति पाहिजे कारण मनाचे अधीन होऊन व्यक्ति भ्रमित राहतो, मुक्त झाल्यास आपल्या वास्तविक स्वरुपात येतो,



#हिन्दी


ऋग्वेद १.४५.३


प्रि॒य॒मे॒ध॒वद॑त्रि॒वज्जात॑वेदो विरूप॒वत् ।


अं॒गि॒र॒स्वन्म॑हिव्रत॒ प्रस्क॑ण्वस्य श्रुधी॒ हवं॑।।


अनुवाद;


महिव्रत - अनेक कार्य करनेवाले।


जातवेदः - सब तरफ।


प्रियमेधव्रत् - ऋषि प्रियमेध जैसे।


अत्रिवत् - ऋषि अत्रि जैसे।


विरुपवत् - ऋषि विरुप जैसे।


अंगिरसवत् - ऋषि अंगिरा जैसे।


प्रस्कण्वस्य - प्रस्कण्वस्य ऋषि।


हवम् - आवाहन।


श्रुधि - सुनना।


भावार्थ;हे श्रेष्ठ कर्मो को करने वाले अग्निदेव! जिस प्रकार आपने अत्रि, प्रियमेध और अंगिरा ऋषि के आवाहन को सुना था तो उसी तरह प्रस्कण्व के आवाहन को भी सुनें।


गूढ़ार्थ;परमात्मा सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और आनंदस्वरूप हैं।परमात्मा से निवेदन किया गया है कि जिस प्रकार आपने ऋषियों के आवाहन को सुना, उसी प्रकार हमारी भी प्रार्थना सुने जिससे हमारा परम कल्याण हो और हमे निमश्रेष की प्राप्ति हो अर्थात जिससे आत्यान्तिक निवृत्ति हो जाए और हम मुक्त हो जाएं। क्योंकि जहां बंधन है वहीं मृत्यु है।मन में ही बंधन है और मन में ही मृत्यु है।मन में स्वभाव और प्रकृति से मुक्ति प्राप्त हो क्योंकि मन के अधीन होकर व्यक्ति भ्रमित हो जाता है।मुक्त होने पर अपने वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है।


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