Rig Ved 1.8.7
यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते ।
उर्वीरापो न काकुदः ॥
Translation:-
यःकुक्षिः - In the stomach region.
सोमपातमः - Drinking more somras like Indra.
समुद्रः + इव - Like an ocean.
पिन्वते - Keeps on growing.
उर्वीः - Pertaining to tongue.
काकुदः - Mouth .
आपो न- Like water
Explanation:-
In this mantra, A comparison is made between tongue and mouth with Indra's stomach region.As we know that the water in an ocean and the saliva in the mouth does not dry so also the stomach region of indra is always wet due to excessive somras drinking.
The other explanation is that just as water flows down the mountains rapidly ,so also the somras flows down to Indra's stomach rapidly making him more strong.
ऋग्वेद १.८.७
यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते ।
उर्वीरापो न काकुदः ॥
भाषांतर :-
यः कुक्षिः - उदर क्षेत्रात.
सोमपातमः - अधिक सोमपान करणारेही इंद्र.
समुद्रः इव - समुद्री सारखा.
पिन्वते - वाढत राहतो.
उर्वीः - जिव्हा.
काकुदः - मुख अथवा चालु.
भावार्थ :
ह्या मंत्रात समुद्र आणि जिव्हा ची तुलना इंद्राच्या उदराशी केळेली आहे. ज्या प्रमाणे समुद्राचे आणि जिव्हा पाणी कधीही कोरडे होत नाही त्याच प्रमाणे अधिक सोमपान करणारे इंद्राचे उदर पण कधीही कोरडे होत नाही,म्हणून तो बलशालीच् राहतो.
एका अणखिन अर्थात अस् सांगितले गेलेले आहे की ज्या प्रमाणे डोंगराचा पाणी वेगाने खाली येतो त्याच प्रमाणे सोमरस पण इंद्राचा उदरात प्रवाहाने धावतो.
ऋग्वेद १.८.७
यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते ।
उर्वीरापो न काकुदः ॥
अनुवाद:-
यः कुक्षिः - जो उदर प्रदेश ।
सोमपातमः - अधिक सोमपान करने वाले इंद्र।
समुद्रः इव- समुद्र की तरह।
पिन्वते - बढता रहता है।
उर्वीः - जिव्हा ।
काकुदः - मुख या तालु।
आपो न -जल की तरह।
भावार्थ:-
इस मंत्र में समुद्र और मुख की जिव्हा से तुलना इंद्र के उदर से की गयी है।जिस प्रकार जिव्हा और समुद्र का पानी कभी नही सूखता उसी प्रकार अधिक सोमपान करने के फलस्वरुप इंद्र का उदर प्रदेश कभी नही सूखता बल्कि उसे और बलवान बनाता है।
दूसरे अर्थ के अनुसार जैसे पहाडी का पानी तीव्रता के साथ नीचे बहता है,उसी प्रकार इंद्रदेव के सोमपान करने पर सोमरस भी तेजी के साथ उदर प्रदेश की ओर बहने लगता है।
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